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Showing posts from March 15, 2020

पुस्तक समीक्षा: फेसबुक लाइव और जिन्दगी का दी एंड

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               पुस्तक समीक्षा  समाज का केंद्र बिंदु है: फेसबुक लाइव और जिन्दगी का दी एंड    चित्रकार व लघुकथाकार श्री मार्टिन जाॅन जी की प्रकाशित लघुकथा संग्रह "फेसबुक लाइव और जिन्दगी का दी एंड" एक बहु आयामी व अतुल्य लघुकथा संग्रह हैं। मार्टिन जाॅन जी ने अपनी लघुकथा में समाजिक, व्यवहारिक, आत्मविश्वास व व्यक्ति विशेष पर घटित व्यथाओ पर लघुकथा के माध्यम से ध्यान आकृष्ट करनें का प्रयास किया है। इस संकलन में कुल ७५ लघुकथाएँ हैं, जो विभिन्न दृष्टिकोण व मार्मिकता पर केन्द्रित है।                कई लघुकथा जैसे-फासला बरकरार है, जुनून-ए-लाइक,मार्केट पॉलिसी, रोटीचोरवा,रेप वन्स अगेन आदि अनेक लघुकथाओं में  सामाजिक नजरिये को पुस्तक: फेसबुक लाइव और जिन्दगी का दी एंड लेखक: मार्टिन जाॅन  दर्शाया गया हैं, जिससे कहीं न कहीं हम सब अवगत हैं। इस संकलन में कुछ और लघुकथाएं हैं जो अनुभव, शिकायत, प्यार, नफ़रत और ऐसे अनगिनत जीवन के पहलूओ को प्रकाशित कर रहा हैं। कथाकार ने स्त्री व पुरूष वर्ग पर समान आघात कर जीवन को समझने और समझाने का अथाह प्रयास किया है। यह पुस्तक अपने रूप में समाज क
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            अवधेश कुमार अवधेश की दो क्षणिकाएं                   1. रफ्तार                   क्या कहूँ,                   उसकी गाड़ी की रफ्तार                   कुछ ज्यादा ही तेज थी                   जाने कैसे अचानक                   एक कुत्ते से टकराई फिर-                  आगे झुक गयी,                  और स्टेयरिंग से                    ऐसी चोट खाई कि,                   खुद उसकी ही.                   जिंदगी की रफ्तार ,                   रुक गयी..।                                             2. प्रभाव              तेज रफ्तार और               बगैर,               लाइसेंस              स्कूटी चलाती,              मंत्री जी की साली              एक निहायत               ईमानदार सिपाही के हाथों              पकड़ाई।              आश्चर्य!किंतु               वह औरों की तरह              न तो रोई और,              न ही घबराई..।              स्कूटी चौकी पर छोड़,              बेखौफ घर आयी।              उधर,शामहोते ही-              बेचारा स

रोहित ठाकुर की कविताएँ

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                    रोहित ठाकुर की कविताएँ    1. शहर से गुज़रते हुए  शहर के अंदर बसता है आदमी आदमी के अंदर बसता है शहर आदमी घेरता है एक जगह शहर के अंदर शहर भी घेरता है एक जगह आदमी के अंदर जब शहर भींगता है भींगता है आदमी एक शहर से दूसरे - तीसरे शहर जाता आदमी कई शहर को एक साथ जोड़ देता है अपने दिमाग की नसों में जब एक शहर उखड़ता है तो उखड़ जाता है आदमी एक छोटा सा आदमी बिलकुल मेरे जैसा अपनी स्मृतियों में रोज - रोज उस शहर को लौटता है जहाँ उसने किसी को अपना कहा उसका कोई अपना जहाँ रहता है उस शहर में जहाँ लिखी प्रेम कविताऐं जहाँ  किसी को उसकी आँखों की रंग से पहचानता हूं उस शहर में जहाँ मैं किसी को उसकी आवाज़ से जानता हूँ उस जैसे कई शहर का रास्ता मुझसे हो कर जाता है हर शहर एक खूबसूरत शहर है जिसकी स्मृतियों का मैंने व्यापार नहीं किया मैं जानता हूँ समय का कुछ हिस्सा मेरे शहर में रह जायेगा  इस तरफ नदी के जब मेरी रेलगाड़ी लाँघती रहेगी गंगा को और हम लाँघते रहेंगे समय की चौखट को अपनी जीवन यात्रा के दौरान अपनी जेब में धूप के टुकड़े को रख कर शहर  - दर - शहर

पुस्तक समीक्षा: तुम्हारा होना सच नहीं है/कृष्ण सुकुमार

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                                                                पुस्तक समीक्षा                               प्रेम की परिभाषा को परिभाषित करती पुस्तक: तुम्हारा होना सच नहीं है! कवि कृष्ण सुकुमार जी के काव्य संग्रह  ' तुम्हारा होना सच नहीं है! ' बोधि प्रकाशन पुस्तक: तुम्हारा होना सच नहीं है   द्वारा प्रकाशित एक पाठनीय पुस्तक है। इस पुस्तक में कवि ने प्रेम के होने या ना होने की वास्तविकता को बहुत ही सुंदरतापूर्वक प्रस्तुत किया है, कवि के इस काव्य संग्रह में अदृश्य प्रेम की कल्पनात्मक सृजन द्वारा सामाजिक शब्दावली के साथ-साथ सामाजिक रूपरेखा को बदलने की प्रमुख दृष्टि है।आजकल प्रेम जो हर गली,कस्बों में देखने को मिलता है यह वह प्रेम नहीं है जो क्षणिक हो, यह तो अनुभव के प्रेम को जागृत करती हैं। सुकुमार जी की कविता में प्यार के साथ-साथ करुणा व एक अदृश्य लगाव को भी स्थान दिया गया हैं जो बहुत कम पढ़ने को मिलता है। इस काव्य संग्रह में प्रेम की अस्सी कविताओं का संयोजन व लेखन कवि ने बखूबी किया है। कवि के शब्दों में प्रेम की परिभाषा कुछ इस तरह हैं: "तुम्हारा होना स

एक बेनाम नाटक: सुदामा सिंह

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                                                                                             नाटक                                                                    एक बेनाम नाटक पात्र:     1.निर्देशक                                      2 नेताजी रेखांकन:सम्पादक      3 दर्शक नंबर एक     4 दर्शक नंबर दो                                                   5 दर्शक - तीन     6 महिला ------------------------ (नाटक के प्रस्तुतीकरण की उद्घोषणा होती है। सभी पात्र प्रेक्षागृह मे दर्शकों के बीच बैठे हैं । मंच पर प्रकाश होता है। निर्देशक मंच पर आ कर लाइट मैन को आवश्यक निर्देश देता है।  तभी ग्रुप का कोई व्यक्ति  मंच पर आ कर निर्देशक के कान मे कुछ कहता है। निर्देशक एकदम से गंभीर हो जाता है । उसे नेपथ्य मे कुछ बुदबुदाते हुए ले जाता है। इधर नाटक शुरू होने मे विलंब के कारण हॉल में सीटियाँ बजानी शुरू हो जाती है।) (भरी और उदास मन लिए निर्देशक वापस मंच पर लौटता है। स्टैंड-माइक  को दुखी मन से पकड़ता है। हॉल मे कुछ देर के लिए सन्नाटा हो जाता है ।) एक दर्शक -     (सन्नाटे को तोड़ते हुए) 

कथाकार राम नगीना मौर्य की कहानी: "ग्राहक देवता"

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                                   कहानी                                   ग्राहक  देवता           पता नहीं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है, जब भी किसी दुकान पर कोई सौदा-सुलुफ आदि खरीदने जाता हूँ, उस समय तो कोई ग्राहक नहीं दिखेगा। अमूमन...दुकानदार मक्खी मारता ही नजर आयेगा, लेकिन मेरे वहां पहुंचते ही अगले चार-पांच मिनट में पता नहीं कहां से ग्राहकों का ऐसा रेला सा उमड़ पड़ता है कि मुझे अपना सामान आदि खरीदने में दिक्कत तो होती ही है, दुकानदार भी मुझे छोड़कर अन्य ग्राहकों से निबटने में लग जाता है, जिससे कभी-कभी तो मिनटों के काम में घण्टों लग जाते हैं।           भले ही मुझे आधा-आधा किलो ही फल खरीदना था, पर त्यौहारी पूजा-पाठ की वजह से पत्नी की तरफ से पांच प्रकार के फल खरीदने की हिदायत दी गयी थी। झोला मैं घर से ही लेकर चला था। खरीदारी की लिस्ट निकालकर याद करते हुए ‘शकूर भाई फल वाले’ की दुकान पर जब मैं पहुंचा तो वहां कोई ग्राहक नहीं था। बताता चलूँ...शकूर भाई पूर्व में फलों के थोक व्यापारी थे, पर इधर कुछ वर्षों से स्वास्थ्य कारणों से, हमारी कालोनी से आगे चैराहे पर, फ  लों की ये छोटी सी दुकान

भूपेन्द्र सिंह की दो लघुकथा

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                                                       1. बेटियाँ-दुर्भाग्य या सौभाग्य ? राजेश के जब दूसरी बेटी हुई वह उदास थे।वह रो रहे थे इसलिए नही कि उनके एक के बाद दूसरी भी बेटी ही हुई बल्कि इसलिए क्योंकि उनके पास उन्हें पालने-पोसने के लिए कुछ नही था।वह बेहद मुफ़लिसी के दौर से गुजर रहे थे..वक्त उनका चारो तरफ से इम्तिहान ले रहा था।राजेश की शादी के अभी 7-8 साल ही हुए थे अपने पिता से झगड़ना उनकी नित्य क्रियाओं में शामिल था.. इसी रोज रोज के झगड़े ने उन्हें पिता से बंटवारा करवा दिया।जब बंटवारा हुआ तब उनके हिस्से में थोड़ी सी जमीन के अलावा कुछ नही आया।उन्हें गृहस्थी नए सिरे से जमानी थी लेकिन पास में पैसे नही थे।कोई भी उनके साथ नही था सिवाय उनकी पत्नी के।इसी बीच उनके दूसरी बेटी हुई और वह रो पड़े।उनकी पत्नी ने उन्हें हौसला दिया।वह हर पल पति के साथ खड़ी रहीं।मुफलिसी का दौर जारी था..नौबत यहां तक आ गयी कि मसाला पीसने के लिए सिलबट्टा तक उनके पास नही था ऐसे में एक छोटे पत्थर पर मसाला घिसकर वह गृहस्थी का पहिया धीरे-धीरे चलाने लगे।उनके पास इस मुश्किल दौर से निकलने का और कोई