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प्रेम कुमार साव की कविताएँ

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  १) किसान उनके लिए सत्तर और अस्सी की  चप्पल होती है मजबूत और टिकाऊ • • उन्हें पाँच सौ , हज़ार की बाटा या एडिडास के जूते की आवश्यकता नहीं होती । खेत से मिलने वाली फसल का अंतिम हिस्सा होती है उनके लिए सबसे स्वादिष्ट • • उन्हें पिज़्ज़ा, बर्गर की  भूख नहीं होती ।  दूसरों के लिए अपना  सुबह-शाम न्योछावर कर देते हैं खेत में • • उन्हें रईसों की तरह नींद नहीं आती। उनके आँसुओं की क़ीमत तुम नहीं समझोगे साहब • • उनके आँसुओं में तुम्हारी तरह झूठ की बू नहीं होती । २) किसान और खेत अच्छा सुनो न ... मैं यदि न आऊँ किसी रोज़  तुम्हारे पास  तो क्या तुम मुझे याद करोगे . . तुमसे मेरी साँसे चलती है यदि तुम न आओगे तो मैं मर जाऊँगा . . और हाँ सुनो ... यह मरना प्रेमी-प्रेमिकाओं वाला मरना नहीं है जो एक-दूसरे को डराने के लिए मरने की बात करते हैं . . मेरा मरना सच का मरना है जिसके बाद संसार का भी मरना तय हैं। ३) प्रेम एक पुरुष से प्रेम करती है तब उसका प्रेम  एक माँ के समान होता है और वह अपने प्रिय को  सदा अपने करीब रखना चाहती है। ... जब एक माँ अपने बच्चें से प्रेम करती है तब उसका प्रेम  एक बच्चा जैसा होता है और व

नज़्म सुभाष की तीन लघुकथाएं

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  लघुकथाएं 1. उसूल वो कई बार सोच चुकी थीं मगर समय ही न मिला।अब तो नवरात्रि सर पर थे लिहाज़ा मजबूरी थी।घर का सारा काम निपटाकर सरला ने एक नज़र घर के मंदिर में दुर्गा जी की मूर्ति पर लगे छत्तर को देखा जो एकदम बदरंग होकर काला हो चुका था।पिछले साल ही उन्होंने पाँच हजार का छत्तर नवरात्रि में खरीदा था। इतनी जल्दी ही बदरंग हो जाएगा ऐसा तो उन्होंने सपने में भी न सोचा था।उन्हें अब शक होने लगा था कि ये चांदी का है भी या नहीं मगर पास की मार्केट के मशहूर दुकान से खरीदा था तो उम्मीद की लौ पूरी तरह बुझी भी न थी।वो आगे बढ़ीं और माता को शीश नवाकर छत्तर उतारने लगीं। छत्तर उताकर उन्होंने उसकी रशीद खोजी और दुकान की ओर चल दीं।शोरूम पहुँचकर उन्होंने छत्तर दिखाया और उसके कालेपन के लिए सवाल किया। दुकानदार ने छत्तर हाथ में लिया।एक- दो बार पारखी नज़र से ऊपर से नीचे तक छत्तर को देखा,फिर चश्मे को ठीक करते हुए उनकी ओर मुखातिब हुआ। "मुझे लगता है ये मेरे यहाँ का नहीं है।" उनका पारा हाई हो गया।उन्होंने असहमति में सिर हिलाया । "मुझे पता था आप ऐसा ही कुछ कहेंगे इसलिए तो....." उन्होंने हर शब्द चबाकर कहा

प्रसाद के काव्य में सौंदर्य चेतना: डॉ. संध्या गुप्ता

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आलेख प्रसाद के काव्य में सौन्दर्य चेतना                                           लेखिका: डॉ. संध्या गुप्ता  सौन्दर्य की उत्पत्ति 'सु' उपसर्ग, 'उन्द' धातु और अरनय प्रत्यय से माना गया है। 'उन्द' का अर्थ है- आद्र करना, अरनय कृतवाच्य का प्रत्यय है। 'सु' का अर्थ है-- भलीभॉति आद्र करने वाला। इस प्रकार जो चित्त को प्रसन्न करता है, वह भी अच्छी तरह से, यह सुन्दर है। सुपठु अथवा भलीभाँति। इस प्रकार सुन्दर का अर्थ होता इस सुन्दर को आद्र करने वाला अथवा आनंद प्रदान करने वाला गुण सौन्दर्य है। सामान्यतः 'सौन्दर्य' वस्तु का एक गुण विशेष है, जो मन को मुग्ध और आकृष्ट करता है। इसमें चित्ताकर्षकता और मनोमुग्धकारिता का गुण विद्यमान होता है।मानव प्राण में प्रेम और सौन्दर्य की भावना अनादि काल से उसके हृदय की धड़कन और रक्त की लालिमा में विद्यमान है। साधारण मानव जहाँ इसका अनुभव करके ही रह जाता है, वहाँ कवि इस भावना की मधुर अभिव्यक्ति करके संतोष प्राप्त करता है। साहित्य का अधिकांश अंश प्रेम और सौन्दर्य को आधार बनाकर ही लिखा गया है। प्रेम के आकर्षण का मूलाधार भी सौन्दर्य क

पुस्तक समीक्षा: 'सब खैरियत है' : मार्टिन जाॅन

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  पुस्तक समीक्षा  ‘ सब ख़ैरियत है’ : समाज की विद्रूपताओं को उजागर करती लघुकथाएं   समीक्षक: डॉ. नीलोत्पल रमेश  लघुकथा के उद्भव एवं विकास की बात जब भी प्रारंभ होती है, तो सबसे पहले हमारा ध्यान भारत के प्राचीन ग्रंथों पर जाता है , क्योंकि इसके उत्स वहीं दिखाई पड़ते हैं | इसके अलावे भी अनेक ग्रन्थ हैं ,जो लघुकथा को प्रमाणित करते हैं, भले ही इसका स्वरूप अलग है | ख्यात लघुकथाकार और रंगकर्मी स्व. नन्दल हितैषी ने लिखा है , ‘भारतीय परिवेश में कथाओं की एक पुरानी परंपरा है | उन लंबी लंबी कथाओं में स्वतंत्र रूप से तमाम उपकथाएं भी हैं जो मूल कथा को विस्तार देती हैं | इन्हीं उपकथाओं में जीवित हैं लघुकथाएं – कभी बोध देने के लिए , कभी उपदेश देने के लिए , कभी ज्ञान देने के लिए तो कभी व्यवस्था की बुराईयों को उद्घाटित करने के लिए | पुनः एक जगह पर स्व. हितैषीजी ने लिखा है , ‘भारतीय परिवेश की पौराणिक कथाएं , अंतर्कथाएं , बोधकथाएं , पंचतंत्र और हितोपदेश आदि की छोटी – छोटी कसी हुई कहानियां लघुकथाओं की  ऐतिहासिक स्त्रोत रही है |’ डॉ. कमल किशोर गोयनका ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है , ‘यह सर्वविदित है कि प्राचीन

अनु चक्रवर्ती की कविताएँ

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1. इन दिनों  लोगों की कुछ कम  सुनती  हूँ  ! इन दिनों लोगों की कुछ कम सुनती हूँ ! मसला  चाहे जो  भी  हो , गौर  कुछ  कम  करती हूँ .. अरे ये  क्या , कैसे , क्यों , कब , ऐसे कैसे ? इन  तमाम  सवालों  से  थोड़ा  परे  रहती  हूँ .. इन दिनों लोगों  की  कुछ  कम सुनती  हूँ ...  जो-जो कैफ़ियत तारी है ज़ेहनो -दिल  पर  उसके  मज़े  खूब -खूब  लेती  हूँ ... मज़िल  मिले  -ना -मिले  , चेहरा  खिले - ना -खिले  रोज़मर्रा अपना सफ़र  बरकरार  रखती  हूँ  ... परिंदों  से  करती हूँ  गुफ़्तगू , कलियों से पूछती हूँ रंगत का पता  अक्सर अपने ही शहर में , प्रवासियों सी गुजर करती हूँ .. इन दिनों  लोगों की  कुछ कम  सुनती हूँ .. जो  हुआ  अच्छा हुआ , जो  होगा  बेहतर ही  होगा  हालातों से  अब  मुफ़्त  के  पंगे  नहीं  लेती  हूँ  ... सही  क्या ; ग़लत क्यों ; मैंने बोला था   ; उसने  समझा नहीं  बेज़ा  तमाशों से अब अपना दामन बचा  लेती  हूँ  ... इन दिनों  लोगों  की  कुछ कम सुनती  हूँ  .. मनपसंद  रेस्तरां  में  खाती  हूँ खाना ,  कई बार देख  आती  हूँ  अकेले  ही  कोई  सिनेमा   पूरे -पूरे  दिन दोस्तों का  इंतज़ार , अब  कुछ कम  करती हूँ  ... आदर्श

अशोक आशीष की कविताएँ

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  1. भूख की तमाम् लड़ाईयाँ          १)   पुरापाषाण काल के आदिमानव से नवपाषाण काल के ज्ञानीमानव तक निष्कंटक कहाँ रही यात्रा गुफाओं, कंदराओं से कूच कर अरण्य के नि:स्सीम विस्तार में कंद-मूल, फल-फूल, आखेट रुपी तमाम् सरंजामों के बीच शेष बची रही भूख. भूख के बरक्स जङ-चेतन के अपने-अपने हिस्से थे अपने-अपने किस्से थे. २) इतिहास ने बतलाया लगभग चालीस हजार वर्ष पूर्व ज्ञानीमानव ने सीखा था अनाज उगाना,अर्थात भूख को मात देने की कला समय के रथ पर आरुढ सभ्यता की तमाम् यात्राओं में रोटी के समानान्तर अक्षुण्ण रही भूख. ३) वे आम हैं घास-फूस की तरह से किसी चट्टान पर अवाँछित उगे हुए वे लङ लेंगे भूख की तमाम् लङाईयाँ जैसे लङ लेते हैं और जीत लेते हैं तमाम् सफेदपोश तिकङम से चुनाव. ४)  वे भूखे हैं कई-कई दिनों के फिर भी माँग नहीं पाते अमीरों की थालियों से एक भी कौर केवल देखते भर हैं टकटकी लगाये अपलक. ५)   वे वाकिफ हैं क्षुधा की तमाम् पीङा से उनकी निस्तेज आँखें पिचके गाल पीठ तक धँसी पेट सहायक हैं कुपोषण ग्रसित सरकारी आँकङों की गणना में. ६)  हाईटेक बाजार बेच लेता है विज्ञापनों की चकाचौंध में तमाम् असली-नकली माल यह भी

विशाखा मुलमुले की कविताएँ

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  चित्र: सम्पादक  1. अनुवाद   जब वह गुनगुनाये नहीं  तब समझना वह किसी सोच में है  जब वह सोच में है  तब तुम उसकी आंखें पढ़ना  तुम चाहो तो पढ़ सकते हो  उसकी धड़कन  खुश होगी तो ताल में होगी  कोई रंज - ओ - ग़म होगा  तो सूखे पत्तों की तरह कांप रही होगी  तब तुम उसके माथे पर बोसा देना  उसकी आत्मा को नया जीवन देना  नयनों से झर - झर झरेंगे तब आँसूं  उन बून्दों का तुम अनुवाद करना  तुम्हारी गिरह में फिर वह स्वतंत्र होगी  हँसेगी , खिलखिलायेगी , उन्मुक्त होगी  रोम - रोम नवगीत कह उठेगा  उस गीत के तुम नायक बनना  देखो ! कितना आसान है न एक स्त्री को समझना  2. घर-आँगन माँ घर आई तो , मनुष्य संग देव भी रहने लगे प्रसन्न  सबको मिलने लगा समय पर अन्न  माखन - मिश्री का भोग लगने लगा  पंच - पकवान का थाल सजनें लगा  पिता घर आये तो , काम का भार छटने लगा दूध , फल , सब्जियों का काँधा बदलने लगा  उन्होंने  रखा हर छोटी - बड़ी बात का ध्यान  किसी भी सूरत में बिटिया ना हो परेशान  टपकते नल , लटकते स्विच बोर्ड के उमेठे गए कान  बिजली के  उपकरणों में पिता ने फूंकी नई जान  प्रकाश का लट्टू अब ट्यूबलाइट बन चमकने लगा  रजत सा मुखड़ा बेटी