रोहित ठाकुर की कविताएँ
रोहित ठाकुर की कविताएँ
1. शहर से गुज़रते हुए
शहर के अंदर बसता है आदमी
आदमी के अंदर बसता है शहर
आदमी घेरता है एक जगह
शहर के अंदर
शहर भी घेरता है एक जगह
आदमी के अंदर
जब शहर भींगता है
भींगता है आदमी
एक शहर से दूसरे - तीसरे
शहर जाता आदमी
कई शहर को एक साथ जोड़ देता है
अपने दिमाग की नसों में
जब एक शहर उखड़ता है
तो उखड़ जाता है आदमी
एक छोटा सा आदमी
बिलकुल मेरे जैसा
अपनी स्मृतियों में
रोज - रोज उस शहर को लौटता है
जहाँ उसने किसी को अपना कहा
उसका कोई अपना जहाँ रहता है
उस शहर में जहाँ लिखी प्रेम कविताऐं
जहाँ किसी को उसकी आँखों की रंग से पहचानता हूं
उस शहर में जहाँ मैं किसी को उसकी आवाज़ से जानता हूँ
उस जैसे कई शहर का रास्ता
मुझसे हो कर जाता है
हर शहर एक खूबसूरत शहर है
जिसकी स्मृतियों का मैंने व्यापार नहीं किया
मैं जानता हूँ
समय का कुछ हिस्सा
मेरे शहर में रह जायेगा
इस तरफ
नदी के
जब मेरी रेलगाड़ी
लाँघती रहेगी गंगा को
और हम लाँघते रहेंगे
समय की चौखट को
अपनी जीवन यात्रा के दौरान
अपनी जेब में
धूप के टुकड़े को रख कर
शहर - दर - शहर
पटना - बनारस - इलाहाबाद - जबलपुर - नासिका
हर शहर ही मेरा खेमा है अगले कुछ दिनों के लिये
किसी शहर को जिसे कोई समेट नहीं सका
इन शहरों के समानांतर
कोई कविता ही गुजर सकती है
बशर्ते उस कविता को कोई मल्लाह अपनी नाव पर
ढ़ोता रहे घाटों के किनारे
मनुष्य की तरह कविता भी यात्रा में होती है.
2. पानी के पर्दे पर चलता है साधारण आदमी के जीवन का चलचित्र
दुनिया भर की चिड़िया
पानी के श्रोत को मानती है धाम
हम नदियों के उद्गम स्थलों के नाम रटते थे
इस भाव से की नदियों में पानी वहीं से आते हैं
तुम खिड़कियों के पास बैठ कर
अपने बालों को सुखाती थी
उन तमाम खिड़कियों के पास
स्मृतियों के कई कुएं हैं
जिनमें मौजूद है मीठा पानी
पानी किसी का घर है
यह बात उतनी ही सत्य है
जितनी की यह -
हमारे देह से छिजता पसीना
पहले पानी था
पानी के पास है नमक
पानी का यह सौन्दर्य -
हमारा सौभाग्य है
माँ पूछती है पानी
बेटी पानी में खेलती है
स्त्री अदहन में पकाती है स्वाद
जब बारिश होती है तो
पानी के पर्दे पर
चलता है साधारण आदमी के
जीवन का चलचित्र.
3.जूते का वर्ग चरित्र अब धूमिल हो गया है
कार्ल मार्क्स
के
इतिहास की द्वंद्वात्मक
व्याख्या में
जूते
वर्गीय चरित्र से परे हो गये हैं
जूते घर के दरवाजे
से
पहुंच गये हैं सर तक
हम लोगों के प्रति नहीं
जूतों के प्रति संवेदनशील हों
जूता इस समय का आईना है
हमें अपना चेहरा
जूतों में देखने चाहिए
जूते पहनने वाले और जूते खाने वाले
एक ही वर्ग से आते हैं
वर्ग विहीन समाज की स्थापना
में
जूते की भूमिका को
मार्क्सवाद ने भी अनदेखा कर दिया
जूतों ने तय किया है लम्बी दूरी
पर पांव से हाथ तक पहुँच कर
जूते हताश हैं.
4. खाली जगह को लोगों से भरनी चाहिए
जगह खाली करने से
कोई जगह खाली नहीं होता
स्मृतियों के तार
वहीं से जुड़े होते हैं
जगह खाली कर जाने वाले लोगों
के
विलाप की ध्वनि का अधिकेंद्र
वही खाली जगह है
पेड़
चिड़िया
हवा
नदी
और मनुष्यता
सभी पाषाण में बदल जाते हैं
पाषाण युग के खिलाफ
किसी जगह को लोगों से भरनी चाहिए
किसी खाली जगह को उपयुक्त शब्दों से
नहीं
कमजोर लोगों से भरनी चाहिए.
5. तुम्हारे गोत्र के इष्ट देवता किसी जंगली फूल के दिवाने थे
तुम्हारे आस-पास
एक मौसम था
पतझड़ का
तुम्हारे मन के संदूक
में था अविश्वास रखा हुआ
तुम्हारी आँखें
सूखे कूप की तरह थी
फिर भी तुम्हारे मस्तिष्क में
फूल खिले हुए थे
बीते बसंत में
मैं अक्सर कहता था
तुम्हारे गोत्र के इष्ट देवता
किसी जंगली फूल के दिवाने थे
तुम्हारे पूर्वज
आकाश मार्ग से नहीं गये स्वर्ग
वे धरती के रंगों को जानने में खप गये
धरती का रंग जब हो जाता है
हमारा धर्म
बसंत आता है.
6. उसे इस समय एक घड़ी चाहिए
उसे घर के खाली दीवार के लिए
एक दीवार घड़ी चाहिए
दरभंगा टावर की घड़ियाँ बंद रही
कई सालों तक
फिर वह शहर छूट गया
पिता की कलाई घड़ी बंद पड़ी है
उनके जाने के बाद
घड़ीसाज़ों की दुकानें बंद
हो रही है
फिल्मों में घड़ीसाज़ का किरदार -
अब कौन निभाता है
नींद में बजती रही है
घड़ी की अलार्म
पर उससे कुछ हासिल नहीं हुआ
तकनीकी रूप से
राजा और प्रजा की घड़ियाँ
समान होती है
पर समय निरंतर निर्मम होता जाता है
प्रजा के लिए
मैंने
उसे समझाया
कोई घड़ी
जनता के लिए जनता ही बनाती है
पर उसमें बजने वाले समय को
नियंत्रित करता है शासक
तुम बाजार से -
कोई भी घड़ी ले आओ
तुम्हारे हिस्से
नहीं आयेगा -
समय का उज्जवल पक्ष.
7. एकांत में उदास औरत
एक उदास औरत चाहती है
पानी का पर्दा
अपनी थकान पर
वह थोड़ी सी जगह चाहती है
जहाँ छुपाकर रख सके
अपनी शरारतें
वह फूलों का मरहम
लगाना चाहती है
सनातन घावों पर
वह सूती साड़ी के लिए चाहती है कलप
और
पति के लिए नौकरी
बारिश से पहले वह
बदलना चाहती थी कमरा
जाड़े में बेटी के लिए बुनना
चाहती है ऊनी स्कार्फ
बुनियादी तौर पर वह चाहती है
थोड़ी देर के लिए
हवा में संगीत.
8. यादों को बाँधा जा सकता है गिटार की तार से
प्रेम को बाँधा जा सकता है
गिटार की तार से
यह प्रश्न उस दिन हवा में टँगा रहा
मैंने कहा -
प्रेम को नहीं
यादों को बाँधा जा सकता है
गिटार की तार से
यादें तो बँधी ही रहती है -
स्थान , लोग और मौसम से
काम से घर लौटते हुए
शहर ख़ूबसूरत दिखने लगता था
स्कूल के शिक्षक देश का नक्शा दिखाने के बाद कहते थे
यह देश तुम्हारा है
कभी संसद से यह आवाज नहीं आयी
की यह रोटी तुम्हारी है
याद है कुछ लोग हाथों में जूते लेकर चलते थे
सफर में कुछ लोग जूतों को सर के नीचे रख कर सोते थे
उन लोगों ने कभी क्रांति नहीं की
पड़ोस के बच्चों ने एक खेल ईज़ाद किया था
दरभंगा में
एक बच्चा मुँह पर हथेली रख कर आवाज निकालता था -
आ वा आ वा वा
फिर कोई दूसरा बच्चा दोहराता था
एक बार नहीं दो बार -
आ वा आ वा वा
रात की नीरवता टूटती थी
बिना किसी जोखिम के
याद है पिता कहते थे -
दिन की उदासी का फैलाव ही रात है.
9. कविता
यूरोप में बाजार का विस्तार हुआ है
कविता का नहीं
कुआनो नदी पर लम्बी कविता के बाद
कई नदियों ने दम तोड़ा
लापता हो रही हैं लड़कियाँ
लापता हो रहे हैं बाघ
खिजाब लगाने वालों की संख्या बढ़ी है
इथियोपियाई औरतें इंतजार कर रही हैं
अपने बच्चों के मरने का
संसदीय इतिहास में भूख
एक अफ़वाह है
जिसे साबित कर दिया गया है
सबसे अधिक पढ़ी गई प्रेम की कविताएँ
पर उम्मीदी से अधिक हुईं हैं हत्यायें
चक्रवातों के कई नये नाम रखे गये हैं
शहरों के नाम बदले गये
यही इस सदी का इतिहास है
जिसे अगली सदी में पढ़ाया जायेगा
इतिहास की कक्षाओं में
राजा के दो सींग होते हैं
सभी देशों में
यह बात किसने फैलायी है
हमारी बचपन की एक कहानी में
एक नाई था बम्बईया हज्जाम उसने.
10. भाषा
वह बाजार की भाषा थी
जिसका मैंने मुस्कुरा कर
प्रतिरोध किया
वह कोई रेलगाड़ी थी जिसमें बैठ कर
इस भाषा से
छुटकारा पाने के लिए
मैंने दिशाओं को लाँघने की कोशिश की
मैंने दूरबीन खरीद कर
भाषा के चेहरे को देखा
बारूद सी सुलगती कोई दूसरी चीज
भाषा ही है यह मैंने जाना
मरे हुए आदमी की भाषा
लगभग जंग खा चुकी होती है
सबसे खतरनाक शिकार
भाषा की ओट में होती है.
11. घर
कहीं भी घर जोड़ लेंगे हम
बस ऊष्णता बची रहे
घर के कोने में
बची रहे धूप
चावल और आंटा बचा रहे
जरूरत भर के लिए
कुछ चिड़ियों का आना-जाना रहे
और
किसी गिलहरी का
तुम्हारे गाल पर कुछ गुलाबी रंग रहे
और
पृथ्वी कुछ हरी रहे
शाम को साथ बाजार जाते समय
मेरे जेब में बस कुछ पैसे.
12. लौटना
समय की गाँठ खोल कर
मैं घर लौट रहा हूँ
मैं लौटने भर को
नहीं लौट रहा हूँ
मैं लौट रहा हूँ
नमक के साथ
उन्माद के साथ नहीं
मैं बारिश से बचा कर ला रहा हूँ
घर की औरतों के लिये साड़ियाँ
ठूंठ पेड़ के लिये हरापन
लेकर मैं लौट रहा हूँ
मैं लौट रहा हूँ
घर को निहारते हुए खड़े रहने के लिये
मैं तुम्हारी आवाज
सुनने के लिये लौट रहा हूँ...
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कवि:रोहित ठाकुर
विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
पटना, बिहार
सम्पर्क:rrtpatna1@gmail.com
कवि: रोहित ठाकुर |
बहुत अच्छी कविताएँ । बधाई 💐
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