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Showing posts from April 5, 2020
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यशस्वी कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की 43वीं पुण्यतिथि पर कवि, साहित्यकार, 'आजकल' के संपादक राकेश रेणु जी का आलेख : फणीश्वरनाथ रेणु के लेखन में लोक की, उनके जीवन और संस्कृति की तरह-तरह की रंग-बिरंगी छवियाँ हैं। वह मानवीय संवेदनाओं के अतुल्य चित्रकार हैं लेकिन वे केवल मनोजगत के कथाकार नहीं, बल्कि बाह्य जगत की घटनाओं के, त्रासदियों और खुशियों के लेखक हैं जो मनुष्य के बाहरी-भीतरी दोनों भावलोकों को प्रभावित करती है। इस लोक जीवन का एक सांस्कृतिक पक्ष है तो दूसरा और भी महत्वपूर्ण पक्ष सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक है।    रेणुजी का सारा का सारा जीवन और लेखन अन्याय, असमानता, अत्याचार और तानाशाही के विरोध का, लोकतंत्र, आजादी और अधिकारों की बहाली का लेखन है। विद्यार्थी जीवन से ही वे जितने कुशाग्र थे उतने ही विद्रोही प्रकृति के भी थे। इसी की वजह से उन्हें अररिया के अपने प्राथमिक विद्यालय में बेंत की सजा खानी पड़ी और स्कूल-निकाला झेलना पड़ा। आगे चलकर वे 1941 के किसान आंदोलन में शामिल हुए। गाँव-गाँव घूमकर संघर्ष की चेतना जगाते रहे। वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए और महीनेभर के

सतीश सरदाना की दो कविताएँ

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सतीश सरदाना की दो कविताएँ  रेखांकन: सम्पादक  (एक) माँ हमेशा कहती है संध्या- समय जोत जगाया करो आठ पहर में से एक पहर भगवान को याद करने का भी रखा करो! मैं कहता था, माँ!क्यों देसी घी खराब करना क्यों अकारण रुई जलाना भगवान अव्वल तो कहीं है नहीं होगा भी तो उसे इन चीजों की जरूरत नहीं! माँ कहती थी कुतर्क तो जितने करवा लो इन कर्मों से मन शांत होता है दो वक्तों के मिलन के वेले में वरना जी उड़ता है! मैं हँस कर कहता, यूँ कहो न मन मरने का करता है! आज जब इस भयानक समय में मेरे बच्चों की माँ पत्नी यही सब करती है मत पूछो!मेरी रूह कितना माँ को याद करती है माँ आज भी मेरे शहर के घर में इतने दुख उठाने के बाद भी संध्या करती है! (दो) आओ मृतकों के बारे में बातें करें वे जो कभी जीवित थे उनकी स्मृति खंगालें मृतक को दिवंगत या स्वर्गवासी भी कह सकता था बेशक यह कुछ सामुदायिक शब्द होता किंतु मैं स्मृति को इस तरह देखता जैसे कलेजे में कुछ चुभता पीड़ा देता यह किसी छुटे मकान या शहर की बात नहीं है किसी टूटे रिश्ते या रूठे दोस्त की बात नह