भूपेन्द्र सिंह की दो लघुकथा





                               

                      1. बेटियाँ-दुर्भाग्य या सौभाग्य ?


राजेश के जब दूसरी बेटी हुई वह उदास थे।वह रो रहे थे इसलिए नही कि उनके एक के बाद दूसरी भी बेटी ही हुई बल्कि इसलिए क्योंकि उनके पास उन्हें पालने-पोसने के लिए कुछ नही था।वह बेहद मुफ़लिसी के दौर से गुजर रहे थे..वक्त उनका चारो तरफ से इम्तिहान ले रहा था।राजेश की शादी के अभी 7-8 साल ही हुए थे अपने पिता से झगड़ना उनकी नित्य क्रियाओं में शामिल था.. इसी रोज रोज के झगड़े ने उन्हें पिता से बंटवारा करवा दिया।जब बंटवारा हुआ तब उनके हिस्से में थोड़ी सी जमीन के अलावा कुछ नही आया।उन्हें गृहस्थी नए सिरे से जमानी थी लेकिन पास में पैसे नही थे।कोई भी उनके साथ नही था सिवाय उनकी पत्नी के।इसी बीच उनके दूसरी बेटी हुई और वह रो पड़े।उनकी पत्नी ने उन्हें हौसला दिया।वह हर पल पति के साथ खड़ी रहीं।मुफलिसी का दौर जारी था..नौबत यहां तक आ गयी कि मसाला पीसने के लिए सिलबट्टा तक उनके पास नही था ऐसे में एक छोटे पत्थर पर मसाला घिसकर वह गृहस्थी का पहिया धीरे-धीरे चलाने लगे।उनके पास इस मुश्किल दौर से निकलने का और कोई उपाय नही था सिवाय इसके कि वह जी-तोड़ मेहनत करते।पत्नी ने उन्हें हौसला दिया और कुछ काम-धंधा करने के लिए प्रेरित किया..समस्या पूंजी की थी ऐसे में उनकी पत्नी ने मायके से कुछ रुपये उधार ले लिए।राजेश ने भी उस समय को पहचानते और स्वीकार करते हुए कपड़ो का कारोबार शुरू कर दिया। वह पुरानी साइकिल से कपड़ो के गट्ठर लादकर अपने आसपास लगने वाली साप्ताहिक बाजारों में जाने लगे।शुरू में कुछ परेशानियां हुईं ।दो छोटी बच्चियों और टूटी-फूटी गृहस्थी को संभालना आसान नही था लेकिन राजेश और उनकी पत्नी लगे रहे।वह जाड़ा-गर्मी-बरसात किसी भी मौसम में बिना नागा किये बाजारों में कपड़े बेचने जाते रहे।उनकी मेहनत रंग लाई और वह अपने सबसे बुरे दौर से निकलने में कामयाब होने लगे।वह फिजूलखर्ची से बचते हुए अपने कारोबार को बढ़ाने में ध्यान केंद्रित किये रहे।धीरे-धीरे तरक्की होने लगी।
  
                                2.  दो साल बाद
                           
उनके जीवन मे भोजन की समस्या तो हल हो गयी किंतु रहने के लिए उनके पास अपना घर नही था।अब उन्होंने जीवन की 3 मूलभूत आवश्यकताओं में से दूसरी पर ध्यान दिया।उन्होंने कुछ पैसे बचाकर अपने हिस्से आयी थोड़ी सी जमीन में मकान बनवाया।यह संकरा भले ही था लेकिन यह उनकी खुद की कमाई से बनाया हुआ था।
इसी बीच उनके तीसरी सन्तान हुई।उन्हें लड़का हुआ।वह भी समाज मे 
चित्र: सम्पादक 
प्रचलित धारणाओं के अनुरूप खुश थे(आज भी हमारे समाज में लड़कों को ही वंश परंपरा चलाने का आधार माना जाता है जबकि लड़कियों को बोझ।लड़की होने पर बहुत कम लोग ही खुश होते हुए देखे जाते हैं)।

अब गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर आ चुकी थी।उनकी दोनो लड़कियां स्कूल जाने लगीं।जैसा कि तय था उन पर भी अपने माता-पिता के गुणों का स्पष्ट प्रभाव था।वह व्यर्थ की चीजों पर ध्यान देने की बजाय अपनी पढ़ाई पर फोकस करती रहीं।अपने पिता से सीख लेते हुए  बिना नागा किये नियमित रूप से स्कूल जाती रहीं और हाइस्कूल और फिर इंटरमीडिएट की परीक्षा अच्छे अंको से उत्तीर्ण किया।
इंटरमीडिएट के बाद जैसा कि हर छात्र/छात्रा उलझन महसूस करता है, उन्होंने भी किया।आगे कौन सी राह सही है??किस ओर जाना उचित होगा...उन्हें नही पता था। B. A/B.Sc करने की उनकी इच्छा नही थी क्योंकि आज के समय मे ये डिग्रियां कितने महत्व की हैं ,यह वह जानती थीं।
बिना समय गंवाए उन्होंने पास ही के एक  प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाने वाले कोचिंग संस्थान में प्रवेश ले लिया।वह अपने स्कूली दिनों की तरह ही नियमित रूप से कोचिंग जाने लगीं।
इसी बीच राज्य सरकार ने पुलिस आरक्षी पदों के लिए नोटिफिकेशन जारी किया।अन्य लड़के/लड़कियों की तरह उन्होंने भी ऑनलाइन फॉर्म सबमिट कर लिखित परीक्षा की तैयारी मन से करने लगीं।
जल्द ही वह दिन भी आ गया जब result आना था। अन्य छात्रों की तरह उन्हें भी डर लग रहा था।
राजेश इंटरनेट से result देख कर आये।उन्होंने अपने पिता का मुस्कुराता हुआ चेहरा देखकर अंदाजा लगा लिया कि रिजल्ट उनके पक्ष में ही आया है।
लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद अगला चैलेंज फिजिकल टेस्ट था ।गांवों में लड़कियों के लिए दौड़ लगाना/कसरत करना आसान कार्य नही है खासकर गांव की बुर्जुआ धारणाओं के बीच ।
खैर!! शारीरिक परीक्षा अच्छी हुई और उन्होंने सभी जरूरी अर्हतायें हासिल कर लीं।
अब चयन का सबसे महत्वपूर्ण मानक रह गया था-मेरिट।
यह वह बला है जहां जी तोड़ मेहनत करने वाला भी मुंह के बल गिर जाता है।
राजेश की छोटी बेटी का अंतिम रूप से चयन महिला पुलिस आरक्षी के रूप में हो गया।इसी बेटी के जन्म पर वो रोये थे और अपने भाग्य को कोस रहे थे आज 18 साल बाद उसी बेटी ने उनके "दुर्भाग्य" को सौभाग्य में बदल दिया। छोटे,संकरे तंग मकान की जगह बड़े हवादार मकान ने,पुरानी साइकिल की जगह चमचमाती मोटरसाइकिल ने,घड़े की जगह फ्रिज ने और हां मुफलिसी के प्रतीक उस मसाला पीसने वाले पत्थर की जगह मिक्सी ग्राइंडर ने ले ली।कर्म और भाग्य एक दूसरे के पूरक हैं।यह राजेश और उनकी बेटियों ने साबित कर दिया।

लेखक: Bhupendra Singh (भूपेन्द्र सिंह)

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