प्रसाद के काव्य में सौंदर्य चेतना: डॉ. संध्या गुप्ता


आलेख



प्रसाद के काव्य में सौन्दर्य चेतना

                                          लेखिका: डॉ. संध्या गुप्ता 

सौन्दर्य की उत्पत्ति 'सु' उपसर्ग, 'उन्द' धातु और अरनय प्रत्यय से माना गया है। 'उन्द' का अर्थ है- आद्र करना, अरनय कृतवाच्य का प्रत्यय है। 'सु' का अर्थ है-- भलीभॉति आद्र करने वाला। इस प्रकार जो चित्त को प्रसन्न करता है, वह भी अच्छी तरह से, यह सुन्दर है। सुपठु अथवा भलीभाँति। इस प्रकार सुन्दर का अर्थ होता इस सुन्दर को आद्र करने वाला अथवा आनंद प्रदान करने वाला गुण सौन्दर्य है। सामान्यतः 'सौन्दर्य' वस्तु का एक गुण विशेष है, जो मन को मुग्ध और आकृष्ट करता है। इसमें चित्ताकर्षकता और मनोमुग्धकारिता का गुण विद्यमान होता है।मानव प्राण में प्रेम और सौन्दर्य की भावना अनादि काल से उसके हृदय की धड़कन और रक्त की लालिमा में विद्यमान है। साधारण मानव जहाँ इसका अनुभव करके ही रह जाता है, वहाँ कवि इस भावना की मधुर अभिव्यक्ति करके संतोष प्राप्त करता है। साहित्य का अधिकांश अंश प्रेम और सौन्दर्य को आधार बनाकर ही लिखा गया है। प्रेम के आकर्षण का मूलाधार भी सौन्दर्य को माना गया है। सौन्दर्य भी आकर्षण शक्ति से युक्त है, जिसका क्षेत्र अत्यंत व्यापक माना गया है। साहित्य के क्षेत्र में सौन्दर्य के दो रूप मान्य है; 1) वाह्य सौन्दर्य और 2) आन्तरिक सौन्दर्य । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मानना है कि सौन्दर्य बाहर की नहीं बल्कि मन के भीतर की वस्तु है। पंत जी का भी कहना है कि अकेली सुन्दरता कल्याणी सकल ऐश्वर्यो का संधान है। हेगेन ने भी लिखा है; Beauty is the shining of the idea through matter. हिन्दी साहित्य में आरम्भिक काल से ही सौन्दर्य की अभिव्यक्ति कवियों के काव्य में होता आया है। अतः सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी कवि जयशंकर प्रसाद के काव्य में भी सौन्दर्य की विस्तृत आभा विकिरित हुई है। उनका अविर्भाव आधुनिक काल में हुआ था, जबकि सौन्दर्य के प्रति एक नवीन चेतना तथा धारणा का जन्म हो रहा था,जिससे प्रसाद जी भी प्रभावित हुए। उन्होंने इसी नवीन चेतना एवं धारणा को अपने काव्य में संजोया है। उनकी काव्य रचनाएँ निम्न शीर्षकों में प्रकाशित है;

1) उर्वशी               

2) वनमिलन

3) प्रेमराज्य

4) अयोध्या का उद्दार

5) शोकाच्छवास

6) वभ्रुवाहन

7) कानन कुसुम

8) प्रेम पथिक

9) करूणालय

10) महाराणा का महत्त्व

11) झरना

12) आँसू

13) लहर

14) कामायनी ।

वैसे प्रसादजी के सम्पूर्ण काव्य में सौन्दर्य की अभिव्यक्ति हुई है, लेकिन उनका विशद सौन्दर्य चित्रण 'कामायनी' में दिखाई पड़ता है। इसमें सौन्दर्य को परिभाषित करते हुए कवि ने इसे चेतना का उज्जवल वरदान कहा है---

"उज्जवल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते है।

जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते है। (लज्जा सर्ग, कामायनी)

उनके सम्पूर्ण काव्य में सौन्दर्य के तीन स्वरूप दृष्टिगत होते हैं--

1) मानवीय रूप सौन्दर्य,

2) प्राकृतिक रूप सौन्दर्य, और

3) भावगत् रूप सौन्दर्य।


1) मानवीय रूप सौन्दर्य- मनवीय रूप सौन्दर्य के अन्तर्गत कवि ने स्त्री-पुरूष के वाह्य सौन्दर्य का वर्णन बड़े मनोयोग से 'कामायनी' में किया है। पुरूष के अपेक्षा उनका झुकाव स्त्री रूप वर्णन में अधिक रमा है। इसलिए वे इस रचना में मनु की अपेक्षा श्रद्धा का रूप सौन्दर्य का विस्तृत वर्णन करते हैं। मनु के सुदृढ़ शरीर तथा अपार वीर्य का वर्णन उन्होंने बड़ी सजीवता से किया है-

चिन्ता कातर बदन हो रहा, पौरूष जिसमें ओत-प्रोत ।

उधर उपेक्षामय यौवन का, बहता भीतर मधुमय स्त्रोत। (चिंता सर्ग, कामायनी)

श्रद्धा के रूप सौन्दर्य वर्णन में प्रसादजी ने उसके वाह्य गुणों को आन्तरिक सौन्दर्य से मिला दिया है। श्रद्धा की उन्मुक्त तथा उदार काया को उन्होंने उसकी आन्तरिक उदारता का परिचायक बताया है;

हृदय की अनुकृति वाह्य उदार, एक लम्बी काया उन्मुक्त,

मधु पवन क्रीड़ित ज्यो शिशु शाल, सुशोभित हो सौरभ संयुक्त। (श्रद्धा सर्ग, कामायनी)

इसी प्रकार वाह्य अनुकृति का वर्णन करते हुए प्रसादजी नीले वस्त्र से आच्छादित श्रद्धा के गौर वर्ण और सुकुमार अंगों के सौन्दर्य को बिजली के फूल के समान दैदीप्यमान बताते हैं -

नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,

खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ बन बीच गुलाबी रंग। (श्रद्धा सर्ग, कामायनी) 

श्रद्धा के समान इडा के रूप सौन्दर्य का वर्णन भी प्रसादजी ने बड़ी ही सजगता से किया है। इस सौन्दर्य चित्रण में उन्होंने जिन विशिष्ट उपमानों का प्रयोग किया है, वे अप्रतिम है;

बिखरी अलके ज्यों तर्क लाज

यह विश्व मुकुट सा उज्जवलतम शशिखंड सदृश्य भाल । (इडा सर्ग, कामायनी)

2) प्राकृतिक रूप सौन्दर्य- प्रकृति को सौन्दर्य का अक्षय भंडार कहा गया है। प्रकृति से जन्म से ही सम्बनिात रहने के कारण मानव प्रकृति से सर्वाधिक प्रभावित रहा है। यही प्रकृति अनादिकाल से कवियों की सहचरी बनकर उन्हें काव्य रचना की प्रेरणा देती रही है। इस संदर्भ में डॉ गणपतिचन्द्र गुप्त ने कहा है कि प्रकृति हमारे कवियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत ही नहीं, सौन्दर्य का अक्षय भंडार, कल्पना का अदभुत लोक, अनुभूति का अगाध सागर, विचारों की अटूट श्रृंख्ला भी रही है।' प्रसादजी आधुनिक काल के छायावादी कवि हैं। छायावादी काव्य में प्रकृति का स्वरूप अत्याधिक निखर कर प्रस्तुत हुआ है। डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में प्रकृति में मानव के तथा मानव में प्रकृति के रूप वैभव का दर्शन सर्वत्र उपलब्ध होता है। ब्रह्म के विराट रूप का प्रतिपादन करना हो, या जीवन दर्शन सम्बन्धी किसी अन्य महत्वपूर्ण सिद्धान्त को समझना हो अथवा किसी गुप्त प्रेम के किसी गोपनीय तथ्य की व्यंजना करनी हो, हमारे काव्य रचयिताओं ने प्रकृति को सहायता के लिए आमंत्रित किया है। अतः छायावादी कवि होने के कारण प्रकृति के प्रति नवीन दृष्टिकोण को प्रसाद जी ने भी अपनाया है।

प्रसाद जी की प्रकृति के प्रति दो प्रकार की भावनाएं हैं। एक तो जिज्ञासा की, जिसके अनुसार वे सोचते हैं कि प्रकृति को यह सौन्दर्य मिला कहाँ से और दूसरी भावना है मुग्ध होने की। "रति उनका हृदय पक्ष है, जिज्ञासा उनका मस्तिष्क पक्ष । प्रकृति के परिवर्तनशील रूप को देखकर सहज ही कवि के मन मे जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती हैं;

छिप जाते हैं और निकलते, आकर्षण में खिंचे हुए.

तृण, वीरूध लहलहे हो रहे, किसके रस से सिंचे हुए ? (आशा सर्ग, कामायनी)

उन्होंने प्रकृति पर चेतनता को आरोपित करते हुए उसे मानव चरित्र से संबंधित किया है, जिसमें कल्पना की गहरी पैठ है, विशिष्ट भाव लोक है एवं मानव हृदय को भावविभोर कर देने वाली सौन्दर्य का विधान है। झरना में कवि ने 'पावस प्रभात' का अति रमणीक वर्णन करते हुए प्रकृति का सुन्दर चित्र उपस्थित किया है-

रजनी के टंक उपकरण बिखर गए. घूघट खोल उषा ने झोंका और फिर

अरूण अपान्गो से देखा, कुछ हँस पड़ी, लगी टहलने प्राची प्रांगन में तभी।

प्रकृति सौन्दर्य का रमणीक चित्र कवि ने 'लहर' काव्य संग्रह में भी प्रस्तुत किया है। इस संग्रह में बीती विभावरी जाग री, 'हे सागर संगम अरूण नील', आँखों से अलख जगाने को', कोमल कुसुमों की मधुर रात, आदि कई कविताओं में कवि ने प्रकृति के सौन्दर्य को उद्घाटित किया है, जिसे देखकर मन सहज ही भाव विभोर हो जाता है। ‘लहर’ में कवि द्वारा उषा का वर्णन मनमोहक बन पड़ा है;

अन्तरिक्ष में अभी सो रही है उषा मधुबाला,

अरे खुली भी नहीं अभी तो प्राची की मधुशाला।

सोता तारक किरन पुलक रोमावलि मलयजवात,

लेते अंगड़ाई नीड़ों में अलस विहग मृदुगात। (लहर, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ -44).

'कामायनी' प्रसाद के प्राकृतिक सौन्दर्य का अनुपम रूप है। इसमें स्थान-स्थान पर कवि ने प्राकृतिक सौन्दर्य को दर्शाया है-

पगली, हाँ सम्हाल कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल,

देख बिखरती है मणिराजी, अरी उठा बेसुध चंचल। (आशा सर्ग, कामायनी)

इसमें कवि ने उषा को सुनहरे तीर बरसाती हुई विजयलक्ष्मी-सी उदित होते हुए दिखाया है, तो कहीं सरिताओं को अपनी भुजा, लताओं-शैलों के गले में डालकर मस्ती से विहार करते हुए दिखाया है। इसमें कवि ने अधिकांशतः सागर और हिमालय का वर्णन किया है। उनकी दृष्टि में जीवन की सुन्दरता और पवित्रता का सम्मिश्रित रूप हिमालय है;

विश्व कल्पना सा ऊँचा वह, सुख शीतल संतोष निदान।

और डुबती सी अचला का, अवलम्बन मणि रत्न विधान। ( कामायनी)

प्रकृति को अपना उपादान बनाकर मानव और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करना ही उनके काव्य की विशेषता है। प्रकुति के सौन्दर्य को उन्होंने रहस्यात्मक रूप देकर उसे चरम बिन्दु तक पहुँचाया है -

मानवी या प्राकृतिक सुषमा सभी,

दिव्य शिल्पी के कला कौशल सभी। (कानन कुसुम, जयशंकर प्रसाद)

3) भावगत रूप सौन्दय- प्रसादजी ने अपने काव्य में अमुर्त भावों को सुन्दर रूप में अभिव्यक्त किया है। 'कामायनी' के चिन्ता, वासना, लज्जा आदि सर्गों में अमूर्त भावों को ही प्रधानता मिली है। चिन्ता को सर्पिणी के समान माना गया है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है;

ओ चिन्ता की पहली रेख, अरी विश्व वन की व्याली,

ज्वालामुखी स्फोट के भीतर, प्रथम कम्प सी मतवाली। (चिंता सर्ग, कामायनी)

इसी प्रकार वासना को भी कवि ने अपनी भावना से समन्वित कर बताया है कि वासना के उदित होने पर प्रकृति में भी परिवर्तन आ जाता है। चन्द्रमा की किरणें मधु बरसाती हुई प्रतीत होती है, समीर मन्द गति से बहने लगता है- 

मधु बरसाती विधु किरण है कॉपती सुकुमार,

पवन में है पुलक मन्थर, चल रहा मधु-भार।

तुम समीप, अधीर इतने कयों हैं प्राण ?

छक रहा है किस सुरभी से तृप्त हो घाण (वासना सर्ग, कामायनी)

न केवल 'कामायनी बल्कि कवि का भावात्मक सौन्दर्य का अंकन 'झरना','आँसू', 'लहर' काव्य संग्रह में भी हुआ है। 'आँसू में उनका भात्मक सौन्दर्य अपनी उच्छश्रृंखलता छोड़कर सौम्य निर्मल रूप में अभिव्यक्त हुआ है। इसमें कवि ने प्रेम की परिभाषा स्पष्ट करते हुए यह स्पष्ट किया है कि प्रेम में आदान नहीं होता, वह तो प्रदान ही पर्याय है:-

पागल रे वह मिलता है कब, उसको तो देते ही है सब,

आँसू के कन-कन से गिनकर, यह विश्व लिए है ऋण उधार। (आँसू, जयशंकर प्रसाद)

अतः कहा जा सकता है कि प्रसाद सौन्दर्य पर बलिहार होने वाले कवि हैं। उनके काव्य में सुकुमार सौन्दर्य विद्यमान है, जिसमें हृदय के कोमल और मधुर भावों को जगाकर जीवन को उदात्त बनाने की पूरी क्षमता निहित है। उनकी सौन्दर्य सर्जना मानव को अभिभूत कर अकर्मण्य नहीं बनाता, बल्कि मानव की चेतना में उर्जा का संचार कर नये युग की अभिलाषा को उद्दीप्त करता है। प्रसाद ने स्वयं ही सौन्दर्य को मोती के भीतर छाया जैसी तरलता कहा है। प्रसाद पर कालीदास का गहरा प्रभाव था। अतः उनकी सौन्दर्य चेतना छोटे-छोटे बिम्बों से पूरा नहीं हो सकता था, इसलिए अपने उदात्त व्यक्तित्व के अनुरूप उन्होंने हिमालय, सागर, आकाश, कैलाश, बादल आदि के विराट बिम्बों को अपनी सौन्दर्य चेतना में ढालने का कलात्मक प्रयास किया है। काव्य में वर्णित उनकी सौन्दर्य चेतना को अनुभूत कर पाठक अपनी चेतना में भी एक ऊँचाई का अनुभव करता है। 'कामायनी' के काम सर्ग में प्रसाद की अलक्ष्य सौन्दर्य के प्रति अद्भूत सौन्दर्यात्मक अनुभूति एवं अडिग आस्था पूरी तीव्रता के साथ अभिव्यक्त है:


सौन्दर्यमयी चंचल वृतियाँ, बनकर रहस्य नाच रही

मेरी आँखों को रोक वहीं, आगे बढ़ने में जाँच रही।

मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी, वह सब क्या छाया उलझन हैं?

सुन्दरता के इस पर्दे में क्या अन्य धरा कोई धन है? (काम सर्ग, कामायनी)


उन्होंने सौन्दर्य के प्रति आकर्षण एवं सौन्दर्य को सत्य एवं शिव के रूप में देखा। नारी प्रकृति एवं मानवी सौन्दर्य को अपनी भावना से संजोकर उन्होंने कामायनी जैसे महाकाव्य का सृजन 

किया, जो हिन्दी साहित्य जगत में अमूल्य धरोहर के रूप में विद्यमान है।



1.साहित्यिक निबंध, पृष्ठ - 566, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2001

2. वही, पृष्ठ – 586 

3. श्री राकेश, प्रसाद और लहर, पृष्ठ-59, (लखनऊ, प्रकाशन केन्द्र, 2000)

4. उदृत, हिन्दी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि, डॉ द्वारिका प्रसाद सक्सेना, पृष्ठ – 130,

(विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा, 1997)


संदर्भ ग्रंथ:


1.कामायनी, जयशंकर प्रसाद, कमल प्रकाशन, दिल्ली, 1988

2.झरना, जयशंकर प्रसाद, कमल प्रकाशन, दिल्ली, 1990

3.लहर, जयशंकर प्रसाद, प्रसाद प्रकाशन, वाराणसी, 1994

4.आँसू, जयशंकर प्रसाद, प्रसाद प्रकाशन, वाराणसी, 1994

5.कानन कुसुम, जयशंकर प्रसाद, प्रसाद प्रकाशन, वाराणसी, 1988

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मोबाइल:7903281611


Comments

  1. पत्रिका में स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

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