नज़्म सुभाष की तीन लघुकथाएं
लघुकथाएं
1. उसूल
वो कई बार सोच चुकी थीं मगर समय ही न मिला।अब तो नवरात्रि सर पर थे लिहाज़ा मजबूरी थी।घर का सारा काम निपटाकर सरला ने एक नज़र घर के मंदिर में दुर्गा जी की मूर्ति पर लगे छत्तर को देखा जो एकदम बदरंग होकर काला हो चुका था।पिछले साल ही उन्होंने पाँच हजार का छत्तर नवरात्रि में खरीदा था। इतनी जल्दी ही बदरंग हो जाएगा ऐसा तो उन्होंने सपने में भी न सोचा था।उन्हें अब शक होने लगा था कि ये चांदी का है भी या नहीं मगर पास की मार्केट के मशहूर दुकान से खरीदा था तो उम्मीद की लौ पूरी तरह बुझी भी न थी।वो आगे बढ़ीं और माता को शीश नवाकर छत्तर उतारने लगीं।
छत्तर उताकर उन्होंने उसकी रशीद खोजी और दुकान की ओर चल दीं।शोरूम पहुँचकर उन्होंने छत्तर दिखाया और उसके कालेपन के लिए सवाल किया।
दुकानदार ने छत्तर हाथ में लिया।एक- दो बार पारखी नज़र से ऊपर से नीचे तक छत्तर को देखा,फिर चश्मे को ठीक करते हुए उनकी ओर मुखातिब हुआ।
"मुझे लगता है ये मेरे यहाँ का नहीं है।"
उनका पारा हाई हो गया।उन्होंने असहमति में सिर हिलाया ।
"मुझे पता था आप ऐसा ही कुछ कहेंगे इसलिए तो....."
उन्होंने हर शब्द चबाकर कहा और पर्स में खोजबीन करने लगीं।पर्चा हाथ लगते ही दुकानदार के चेहरे की रंगत बदलने लगी।
उसने दुबारा छत्तर को उलटा-पलटा और खिसियानी हँसी चेहरे पर लपेटते हुए बोला-"आप सही कह रही हैं दरअसल मैं मोहर देख रहा था जो उस वक़्त न दिख रही थी मगर अब गौर से देखा तो एकदम किनारे लगी है।"
"फिर"
"कोई बात नहीं, मैं साफ़ करवा देता हूं"
"मगर ये काला क्यों पड़ा?"
"दरअसल मंदिर में जो धूपबत्ती या दीआ जलाया जाता है उसके धुंए से ऐसा होता है,आप निश्चिंत रहें।"
वो इस बात से संतुष्ट तो न थीं मगर और कोई ऑप्शन भी तो न था लिहाजा उन्होंने सहमति दे दी।
क़रीब आधे घंटे के बाद उनके हाथ छत्तर आया तो वह साफ़ ज़रूर था मगर सफ़ेद की बजाय पीलापन उतर आया था।अब तो उन्हें पक्का यक़ीन हो चुका था कि दाला में कुछ काला है।
"इसमें पीलापन क्यों है?"
उन्होंने छत्तर उसकी ओर बढ़ा दिया।
"पुराना हो चुका है इसलिए नये जैसी चमक थोड़ी आएगी...बाकी साफ़ तो करवा ही दिया है।आपको कौन सा इस्तेमाल करना है मंदिर में ही तो लगाना है"
" मंदिर में लगाना है तो कुछ भी दे दीजिएगा।क्या चाँदी पीली होती है?"
दुकानदार का दिमाग़ अब चकराने लगा था।मिलना मिलाना कुछ न था और उधर से सवाल पर सवाल दागे जा रहे थे।अब वो जवाब क्या दे?ऐसे में उसने बड़ी मुश्किल से थूक गटका और आहिस्ता से बोला-" अब आपको मैं क्या समझाऊँ...पुरानी चीज नयी नहीं हो पाती!"
"मैं इसको नया करने के लिए नहीं कह रही बस इसका पीलापन हटाइए या इसे बदलकर दूसरा दीजिये"
"ऐसा नहीं होता है,आपने इसे मंदिर में चढ़ा दिया है इसलिए हम इस बदल नहीं सकते"
"मगर क्यों?"
"देखिए अब आप परेशान कर रही हैं"
झुंझलाहट उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी मगर कस्टमर पर जाहिर नहीं करना चाहता था इसलिए दुबारा बोला-"आप इसे मंदिर पर चढ़ा चुकी हैं इसलिए हम दुबारा किसी और को बेच नहीं सकते और इसे गलवा भी नहीं सकते इसलिए बदलना नहीं हो पाएगा"
उन्हें याद है कि पूरी चांदी के पैसे और बनवाई तक उन्होंने चुकाई थी और अब ये हाल है। उनका धैर्य जवाब दे चुका था लिहाज़ा वो चीख पड़ीं-"पहले आपने इसे अपने यहाँ का मानने से ही इन्कार कर दिया और अब आप बदल भी नहीं रहे जबकि मुझे लगता है ये चाँदी का है ही नहीं....आपको शर्म आनी चाहिए। आप एक हिन्दू हैं और पूजा-पाठ की चीजों में भी धाँधली करते हैं"
दुकानदार को उनसे ऐसी उम्मीद न थी ।ये तो अच्छा था अभी कोई और कस्टमर न था अन्यथा वो भी भड़क जाते ,इसलिए वो चाहता था कि वो जल्दी वहाँ से टरें लिहाज़ा उसने चेहरे पर गंभीरता ओढ़ी और धीमे किन्तु सख़्त लहज़े में बोला-"माफ़ करना मैडम! आपको बिजनेस की कोई जानकारी नहीं है मगर इतना जान लीजिए धर्म के उसूल अलग होते हैं बिजनेस के अलग।"
सरला मैडम शॉक्वड खड़ी थीं। धर्म और बिजनेस के अलग-अलग उसूलों की गुत्थी उनकी समझ से बाहर है।
2. ग़ुलाम
"बाबूजी दीये ले लीजिए"
'बेमौसम दीये!'
उन्होंने हैरानी से उसे देखा और जे़हन पर ज़ोर डाला मगर कोई ऐसा त्यौहार दिमाग़ में न कौंध सका जिसमें हाल- फिलहाल दीये जलाए जाते हों लिहाज़ा वो हैरानी से बोले-"इस वक़्त दीये किसलिए?"
"ये ल्लो! आपको ये भी नहीं पता!"
उसने अपनी दाहिनी हथेली सर पर मारी और नाटकीय अंदाज़ में बोला-"सारी दुनिया को ख़बर है आपको कुछ पता ही नहीं!"
अब उन्हें और अधिक हैरानी हुई कि आख़िर ऐसा क्या है जो सारी दुनिया को पता है और उन्हें नहीं मगर हक़ीक़त यही थी कि उन्हें कुछ याद न आ सका ऐसे में वो हथियार डालते हुए बोले-"ऐसा क्या है भाई? जो सारी दुनिया को पता है बस मुझे नहीं पता!"घ
उसने उन्हें घूरकर ऐसे देखा जैसे वो कोई अजूबी चीज हों फिर उन पर अहसान जताते हुए बोला-"बाबूजी! तीन दिन बाद अयोध्या में भूमि पूजन है!दीवाली मनानी है सबको!"
"आंय! दीवाली मनानी है! किसने कहा?"
"माफ़ करिए बाबूजी! लगता है आप इस दुनिया में रहते ही नहीं!ख़ैर, आप जाइए बेकार में टाइम खोटी किया"
उसने आजिज़ आकर कहा तो वह मुस्कुराये।
"मुझे सच में नहीं पता!दरअसल पड़ोस में एक कोरोना पेशेंट निकला था तो कंटोनमेंट ज़ोन की वजह से हम लोग घर में ही क़ैद रहे।आज ही ज़रूरी सामान के लिए बाहर निकला हूँ"
"ओह!अब समझा।ख़ैर, सारे हिन्दू मना रहे हैं।मन्दिर जो बनने जा रहा है!"
'इस वक़्त जब देश में कोरोना से रोज़ाना पचास हजार लोग संक्रमित हो रहे हों और चिकित्सकीय सुविधाएँ नदारद हों,अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही हो,बेरोज़गारी का ग्राफ तेज़ी से बढ़ रहा हो ऐसे में बुनियादी ज़रूरतों की बजाय मंदिर के लिए भूमि पूजन!'
फिर उन्हें याद आया बिहार में चुनाव भी तो आने वाला है!
उन्होंने इतना सब सोचा ज़रूर मगर इतना भर कह पाये-
"भाई! में इस देश का नागरिक हूँ,किसी पार्टी का गुलाम नहीं।सत्ता द्वारा थोपे गये बेमतलब के त्योहार नहीं मनाता।घर के मन्दिर में एक दीया रोज़ जलाया जाता है मगर दीये तो तभी खरीदूँगा जब दीवाली आएगी।"
"कोई बात नहीं बाबू जी! हम तो सोचे थे दो- तीन दिन दियाली ही बेच लेंगे कुछ फ़ायदा हो जाएगा.. .बड़ा बुरा वक़्त आ गया है। सारा काम धंधा चौपट हो गया है।ख़ैर! जब आपको नहीं मनाना तो उम्मीद ही बेकार है!"
उसने बोझल मन से कहा और दूसरी तरफ़ देखने लगा।
बाबूजी एकपल खड़े सोचते रहे। 'चंद पैसों की बात है उसकी उम्मीदें तोड़ना ठीक नहीं'
"लाओ भाई !बीस रुपये की दीयाली दे दो"
अचानक उसके कानों में आवाज़ पड़ी तो वो हैरानी से उन्हें देखते हुए बोला-"मगर आप तो मनाएँगे नहीं फिर!"
"अब सोचा है दीयाली ज़रूर जलाऊँगा"
"मगर किसलिए?"
" इस महामारी में मारे गये लोगों की आत्मा की शांति के लिए और राजनेताओं की सद्बुद्धि के लिए"
पॉलीथीन में दीयाली रखते उसके हाथ एकपल को ठिठके।बाबूजी के चेहरे पर उसने एक उचटती नज़र डाली फिर जल्दी-जल्दी दीयाली भरने लगा।
3. सांत्वना
"आज मेरे पति ने मुझे अपने हाथों से बनाकर चाय पिलाई"
"आज मुझे कमरदर्द था तो पतिदेव ने ख़ुद मूव लगाते हुए कहा-" तुम आराम करो आज घर के काम मैं देख लेता हूँ"
"आज उन्होंने ऑफिस से आते ही हमें अपनी बाहों में भर लिया,सच कहूँ तो लगा ही नहीं कि हमारी शादी को बारह साल हो चुके हैं लगा अभी- अभी की बात है।कितनी ताज़गी है उनकी मुहब्बत में!"
सुरभि की रोज़ ही ऐसी पोस्ट देखकर अनन्या मुस्कुरा देती।उसकी क़िस्मत पर रश्क़ करते हुए एकाध कमेंट भी कर आती कि दीदी आप बेहद भाग्यशाली हैं जो भाईसाहब इतनी केअर करते हैं।फिर उसे सुरभि से ईर्ष्या होने लगती तो वह उदास हो जाती, सोचती कि एक वह है जिसकी शादी के बारह साल बाद भी दाम्पत्यजीवन में कितनी ताज़गी है जबकि उसकी शादी को मात्र पाँच साल हुए हैं मगर लगता है जैसे एक लम्बा युग बीत गया हो। संबंध बासी होकर छीजने लगे हैं।अनुराग का हमेशा सर्द- सा लहज़ा! उसकी रोज़ की ऊब भरी बेचैनी! कुछ पूछो तो संक्षिप्त -सा उत्तर! जैसे एक ही घर में दोनों अजनबी हो गये हों ! क्या शादी का यही सुख है?
उसने ख़ुद से सवाल किया किंतु जवाब नदारद था।वो अपनी भी कमियाँ खोजने की कोशिश करती लेकिन बेहद सोचने के बाद भी किसी ठोस नतीजे पर न पहुँच पाती,जबकि वह अनुराग के घर आने से पहले खूब सजती- सँवरती कि शायद एक मुहब्बत भरी नज़र वह उस पर डाले या हल्की-फुल्की छेड़छाड़ ही करे मगर वह तो उसे देखता तक नहीं।
उसकी पसंद का खाना बनाती इस उम्मीद में कि कभी तो तारीफ़ करे वो मगर उसके मुंह से एक बोल न फूटता। कई बार उसकी ख़ामोशी पर वह कुरेदती भी-"कैसा लगा खाना?"
"ठीक ही है"
इतनी मेहनत और लगन से बनाये खाने पर इतनी बोझिल प्रतिक्रिया! वह बुझ जाती।क्या वह ये नहीं कह सकता कि आज तुमने इतना स्वादिष्ट खाना बनाया है कि मन करता हैं तुम्हारे हाथ चूम लूँ।
सब व्यर्थ था।पूरे दिन मर-जर के घर की साफ-सफ़ाई करो। उसके कपड़े धुलकर प्रेस करो।पसंद का खाना बनाओ....रात को बेडरूम में उसके साथ होकर तमाम तरह की खुशफ़हमी पालो लेकिन कोई फ़ायदा नहीं।ये भी कोई ज़िंदगी है?
बड़ी देर तक वह इसी ज़द्दोज़हद में उलझी रही फिर अचानक उसे ख़याल आया क्यों न सुरभि से इस टॉपिक पर बात की जाए।शायद वो कोई तरीका बताए जिससे उसकी भी ज़िन्दगी में बहार आ जाए।यही सोचकर वह उसके इनबॉक्स में गयी और टाइप किया-
"हाय दीदी! कैसी हैं?"
हरी लाइट के बावजूद उधर से कोई प्रतिक्रिया न हुई।वो दो मिनट तक मैंसेजर पर नज़रें गड़ाए रही मगर जवाब अब भी नदारद था।ऐसा तो नहीं कि उन्होंने मैसेंजर डिलीट कर रखा हो।उसने सोचा फिर ऊबते हुए फेसबुक पर आ गयी।दो-चार पोस्ट देखे, एकाध पर कमेंट किया।तबतक बीप की आवाज़ के साथ मैसेज आ धमका-
"मैं ठीक हूँ,आप बताएँ"
"दरअसल दीदी बात ये है कि आप ज़िन्दगी इतनी खूबसूरती से जीती हैं कि आप पर रश्क़ होता है जबकि..."
"जबकि! क्या?"
"मेरी शादी के पाँच साल ही हुए हैं और लगता है जैसे हमारे बीच कुछ बचा ही नहीं है"
"होता है बहन! कभी-कभी ऐसा भी होता है"
"मगर आपकी शादी के तो बारह साल हुए हैं तब भी!"
उधर से कुछ लिखने के संकेत आते रहे मगर थोड़ी देर बाद जवाब की बजाय उदासी वाली इमोजी दृष्यमान हो उठी।उसने हैरानी से इमोजी देखी शायद ज़ल्दबाज़ी में इमोजी क्लिक हो गयी हो लिहाज़ा लिखा-"दीदी ये क्या है?"
"ये फेसबुक है।यहाँ कोई किसी को नहीं जानता।सबने अपने चेहरे पर मुखौटे चढ़ा रखे हैं।मैं भी ऐसी पोस्ट डालकर ख़ुद को मात्र सांत्वना देती हूँ।पोस्ट पर आए हंसी-मज़ाक के कमेंट पढ़कर खुश हो लेती हूँ जबकि हक़ीक़त कुछ और है"
"हक़ीक़त कुछ और है! क्या मतलब दीदी?"
"हमारा तो शादी के दो साल बाद ही तलाक़ हो गया था..वो दो साल मेरी ज़िंदगी के त्रासदी भरे थे।अब उसको याद भी नहीं करना चाहती।बस तुम इतना समझ लो दस साल से अकेली हूँ।"
अनन्या शाक्व्ड- सी इस कमेंट को देख रही है।एक बार मन में आया कि पूछे जब पति इतना ज़ालिम था तो उसको रोज़ याद क्यों करती हैं? मगर उसकी हिम्मत जवाब दे चुकी थी।
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लेखक: नज़्म सुभाष
पता: 356/केसी-208
कनकसिटी आलमनगर लखनऊ-226017
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