विशाखा मुलमुले की कविताएँ
1. अनुवाद
जब वह गुनगुनाये नहीं
तब समझना वह किसी सोच में है
जब वह सोच में है
तब तुम उसकी आंखें पढ़ना
तुम चाहो तो पढ़ सकते हो
उसकी धड़कन
खुश होगी तो ताल में होगी
कोई रंज - ओ - ग़म होगा
तो सूखे पत्तों की तरह कांप रही होगी
तब तुम उसके माथे पर बोसा देना
उसकी आत्मा को नया जीवन देना
नयनों से झर - झर झरेंगे तब आँसूं
उन बून्दों का तुम अनुवाद करना
तुम्हारी गिरह में फिर वह स्वतंत्र होगी
हँसेगी , खिलखिलायेगी , उन्मुक्त होगी
रोम - रोम नवगीत कह उठेगा
उस गीत के तुम नायक बनना
देखो ! कितना आसान है न एक स्त्री को समझना
2. घर-आँगन
माँ घर आई तो ,
मनुष्य संग देव भी रहने लगे प्रसन्न
सबको मिलने लगा समय पर अन्न
माखन - मिश्री का भोग लगने लगा
पंच - पकवान का थाल सजनें लगा
पिता घर आये तो ,
काम का भार छटने लगा
दूध , फल , सब्जियों
का काँधा बदलने लगा
उन्होंने रखा हर छोटी - बड़ी बात का ध्यान
किसी भी सूरत में बिटिया ना हो परेशान
टपकते नल , लटकते स्विच बोर्ड के उमेठे गए कान
बिजली के उपकरणों में पिता ने फूंकी नई जान
प्रकाश का लट्टू अब ट्यूबलाइट बन चमकने लगा
रजत सा मुखड़ा बेटी का कुंदन सा दमकने लगा
माना कि ,
दादा - दादी इस पुकार से पगे है आपके कान
फिर भी ,
नाना - नानी इस आवाज़ का रखना है आपको ही ध्यान
साल में कम से कम दो - चार बार
माँ - पिता बिन बात आया करो
कैसा है बिटिया का संसार
अपनी आँखों से देख जाया करो
धुँधलाता है बचपन आकर धूल हटाया करो
ससुराल में है बिटिया मायका घर लाया करो
3. ईश्वर की संताने
ईश्वर के निद्राकाल में
देवालय के कपाट पुनः खुलने के मध्यकाल में
हरे - भरे बगीचे में
नन्हें बच्चे उछल - कूद रहे हैं
खेल रहे हैं नदी - पहाड़ का खेल
दिख रहे हैं यूं जैसे पानी की सतह पर
नाच रही हो रोशनी की किरणे
हरी - भरी घास उनकी नदी है
चबूतरा है उनका पहाड़
नदी में जैसे ही वे पांव धरते
चौकीदार बजाता चेतावनी की पुरजोर सीटी
बच्चे लौट जाते पहाड़ पर
यह क्रम चलता अनवरत
लग रहा था यूँ कि सारे बच्चे हैं संगी
और दाम है चौकीदार पर
पूरी दोपहर वह बजाता रहा सीटी
और शामिल रहा अनजाने ही नदी - पहाड़ के खेल में
बच्चे खेलते रहे खिलखिलाते रहे
पहाड़ से चल पड़ी खुशियों की नदी
इतना जागृत वातावरण कि निद्राकाल में भी
ईश्वर को न नसीब हुई दो पल की नींद !
4 . तिल - तिल बढ़त ही जाये
तिल - तिल कर बढ़ता है प्यार
संगी , तिल -तिल कर होते हैं एकरूप
तिल भर ही बदली है
हमनें अपनी आदतें
बस तिल भर ही करती हूँ मैं नख़रे
हालांकि , इस बात में है तिल भर सच्चाई
तिल - तिल जोड़ बसाया घरौंदा अपना
तिल भर को ना दरकी भरोसे की दीवार
तिल -तिल कर चुकती हैं तमाम किश्तें
किश्तों पर ,
कभी नहीं रहा तुम्हारा विश्वास
तुमने हमेशा ही चाहा तिल - तिल पॉव पसारना
पहले चादर को बढ़ाना
गुलज़ार ने लिखा है कहीं
"एक सौ सोलह चाँद की रातें
एक तुम्हारे काँधे का तिल "
बस उसी तिल पर टेकती हूँ सर अपना
5. खेल
छोटा बच्चा छोटे से घोड़े को दौड़ा रहा है
हिनहिना रहा है घोड़ा
खिलखिला रहा है बच्चा
अभी है घोड़े की लगाम बच्चे के हाथ में
घोड़े के एक अगले पैर को पिछले पैर से बांध रखा है
इस तरह से दौड़ भी है बच्चे के काबू में
बस , कुछ ही वर्षों की बात है
बच्चा बड़ा होगा
घोड़ा दुगुनी रफ्तार से बड़ा होगा
उसमें अश्वबल होगा
लगाम बच्चे के हाथों से छूटती जाएगी
फिर बच्चा दौड़ेगा घोड़ा उसे दौड़ायेगा
घोड़ा है चाहना
बच्चा है मन
सड़क है जीवन
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बहुत बढ़िया।सब कुछ जो आस पास है,यहाँ है।सुंदर।
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