अनु चक्रवर्ती की कविताएँ
1. इन दिनों लोगों की कुछ कम सुनती हूँ !
इन दिनों लोगों की कुछ कम सुनती हूँ !
मसला चाहे जो भी हो , गौर कुछ कम करती हूँ ..
अरे ये क्या , कैसे , क्यों , कब , ऐसे कैसे ?
इन तमाम सवालों से थोड़ा परे रहती हूँ ..
इन दिनों लोगों की कुछ कम सुनती हूँ ...
जो-जो कैफ़ियत तारी है ज़ेहनो -दिल पर
उसके मज़े खूब -खूब लेती हूँ ...
मज़िल मिले -ना -मिले , चेहरा खिले - ना -खिले
रोज़मर्रा अपना सफ़र बरकरार रखती हूँ ...
परिंदों से करती हूँ गुफ़्तगू , कलियों से पूछती हूँ रंगत का पता
अक्सर अपने ही शहर में , प्रवासियों सी गुजर करती हूँ ..
इन दिनों लोगों की कुछ कम सुनती हूँ ..
जो हुआ अच्छा हुआ , जो होगा बेहतर ही होगा
हालातों से अब मुफ़्त के पंगे नहीं लेती हूँ ...
सही क्या ; ग़लत क्यों ; मैंने बोला था ; उसने समझा नहीं
बेज़ा तमाशों से अब अपना दामन बचा लेती हूँ ...
इन दिनों लोगों की कुछ कम सुनती हूँ ..
मनपसंद रेस्तरां में खाती हूँ खाना ,
कई बार देख आती हूँ अकेले ही कोई सिनेमा
पूरे -पूरे दिन दोस्तों का इंतज़ार , अब कुछ कम करती हूँ ...
आदर्श ; संस्कार ; परंपरा ; और तहज़ीब को , रख दिया है ताक पर
बस किसी का दिल ना टूटे , इस क़वायद में रहती हूँ ..
इन दिनों लोगों की कुछ कम सुनती हूँ ...
मरहम लगाने वाले हाथों से करती हूँ परहेज़
कॉफ़ी पहले से कुछ ज्यादा कत्थई पीती हूँ .....
ज़िगर के हर पीर को कह दिया है , हौले से बिस्मिल्लाह !
ज़ायकाए - ज़िन्दगानी के अब, रोज़ नए लुत्फ़ उठाती हूँ ...
यकीं मानिये ,
इन दिनों लोगों की कुछ कम सुनती हूँ
मसला चाहे जो भी हो , गौर कुछ कम करती हूँ
2.नदी जो हूँ !
कैसे ठहर जाती ,
बताओ भला ,
आख़िरकार ...
नदी जो हूँ !
लौटना , मुड़ना , रुकना
फितरत ही नहीं मेरी ...
मैंने सीखा है -
सदैव अपने सम्पूर्ण भावों
और
तरंगों के साथ ,
निरंतर बहते रहना ....
सूखी होती वनस्पतियों को
शीतलता प्रदान करना ...
सींचना अपनी रस-धाराओं से
खेतों और खलियानों को ....
ताकि
जीवन की गतिशीलता बनी रहे ..
कई मर्तबा
उजाड़ , बंजर-सी जमीं को
दी है मैंने भी हरियाली ...
ऊँचे पर्वतों से
जब फूटी थी
मेरी पतली -सी एक धार !
तब बेहद स्निग्ध -सी थी मैं !
अपने अंतहीन सफ़र के दौरान
ना जाने कितनी दफ़े मैंने,
चट्टानों , प्रस्तरों
रेत और बालुओं
के विशालतम टीलों को
समाहित किया है अपने
अंतस में ...सोचा था -
बस ये ही कि - मेरे
बहाव में कहीं कोई अपना पीछे
ना छुट जाये कभी ...
कल -कल
छल-छल करती मेरी
अमृत धारा में ,
ना जाने कितने पीर छिपे हैं अब भी ..
अपितु ,
तुम तो हो सिन्धु !
सदैव से ही ,
ठहराव चाहते हो ,अपने अस्तित्व में ...
ना कभी किया स्वागत !
ना ही किया कभी विसर्जन !
दूध जैसी उफनती रस धाराओं का तुमने !
स्थिर बने रहे अपनी धुरी पर...
परन्तु तरंगिनी !
इस बार
तुममे समाहित होकर भी
कदापि , नहीं खोना चाहती
स्वयं की निजता ..!
बचाए रखना चाहती है -
नारी का स्वाभिमान !
पोषण करते रहना चाहती है
सम्पूर्ण जगत का ...
तुम्हारे खारेपन के संवर्धन
से भी अधिक प्रिय हैं - आज
नदी को ,
स्वयं की सुचिता
3. महरियाँ
महरियाँ भी होती हैं
बिल्कुल सखियों जैसी ही !
दूरोंतो ट्रेन जैसी ,
प्रवेश करती हैं घर में ...
बोलते- बतियाते
फटाफट निपटाती हैं
अपना सारा काम ...
इस बीच मुहल्ले भर के
समाचारों का सुनाती जाती हैं ,
सिर्फ हेड लाइन्स !!
ताकि - चटपटी सूचनाओं में
रहस्य बना सके बाकि !
अब रहस्य पर से पर्दा
उठाने के लिए ,
हमें भी तो करनी ही पड़ती हैं ना -
लाख मिन्नतें !
अगर मूड अच्छा रहा इनका
तो तुरंत विस्तृत जानकारी
मिल जाएगी आपको ...
लेकिन
अगर भूतकाल में आपने कभी
लापरवाही से ले लिया हो
कहीं इनका नाम -
तो
फिर तो करते रहिये लाख क़वायद
सच्चाई जानने के लिए !
बहरहाल ,
मायका हो
या हो ससुराल ...
हम भी दिल खोल कर
रख देती हैं इनके सामने ,
और कसम से -
इनकी पल भर की हमदर्दी
कभी -कभी दिल के
नासूर को भी भर देती है
बड़े जतन से !!
बिना पूर्व सूचना के ,
जिस दिन ले लेती हैं ये छुट्टी !
दरअसल ,
उस दिन इनके असली महत्व
का पता चलता है हमें !
और दूसरे दिन -
होंठों पर मुस्कान
और बाजूओं में फुर्ती के साथ ही
जब ये प्रवेश करती है
घर में ...
तो अहा !
आज मैं ऊपर / आंसमा नीचे
वाली फीलिंग आ ही जाती है
हमारे भी मन में !!
गृहस्थी की स्वच्छता में
अपना सम्पूर्ण योगदान
देने वाली महरी !
ना जाने कब
इतनी घुलमिल जाती है
परिवार में की
उसके बिना किसी अनुष्ठान की
मात्र कल्पना भी हमें
अन्दर से भयभीत कर देती है ...
सामंजस्य और समझदारी
के साथ बना
ये दिल का रिश्ता
कभी- कभी तो
जन्म के रिश्तों से भी
अधिक गहरा असर छोड़ जाता है-
जीवन में ....है ना ?
4. आत्महत्या
गांव , देहात , नगर ,
और
महानगरों से लगभग रोज़ आ रही हैं
आत्महत्या की ख़बरें !
किसान हो
छात्र हो
अभिनेता हो
पत्रकार हो
या की हो कोई
चिकित्सक!
सभी करने लगे हैं आत्मदाह ....
~~~
अपरिहार्य हो गया हो जैसे
समयस्याओं के आगे हाथ खड़े करना !
मनुष्य के जुझारूपन की सारी ताकत
शीर्ण हो चुकी है इन दिनों ...
धराशाई हो रहे हैं
लगातार जीवनमूल्य ....
सरल लगने लगा है
ऐसे में अपनी जान दे देना ....
~~~
फ़िर किसी दिन बिलखता छोड़
ये अपने ही परिवार को ....
कर्तव्यों को करके अनदेखा
सीना ताने
चुपचाप निकल जाते हैं
उसी डगर पर
जिसका कोई सिरा
वापस नहीं मुड़ता
जीवन संचेतना की ओर
~~~
कोई तो समझाए इनको भी
कि -
शहादत किसे कहते हैं ....
शताब्दियों तक याद किये जाते हैं
केवल वे लोग
जिन्होंने अंतिम सांस तक लड़ी हो
विपत्तियों से जंग !
बचाया हो अपना कुनबा
अपना समाज
अपने लोगों को ...
~~~
नहीं ...नहीं ...
भगवान के लिए
इस तरह कायर न बनो तुम!
मत रखो दिल ही दिल में
अपनी कोई बात ...
उठो , जागो , देखो !
और समझो
तुम्हारे आसपास की दुनिया
कितनी आहत है
एक बस तुम्हारे समय से पहले
चले जाने के बाद ....
~~~
कवयित्री: अनु चक्रवर्ती
पता: C/O श्री एम . के . चक्रवर्ती
C - 39 , इंदिरा विहार
बिलासपुर ,छत्तीसगढ़
Pin - 495006
Ph- 7898765826
Beautiful poetries 🙏
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