सतीश सरदाना की दो कविताएँ

सतीश सरदाना की दो कविताएँ 
रेखांकन: सम्पादक 

(एक)

माँ हमेशा कहती है
संध्या- समय जोत जगाया करो
आठ पहर में से एक पहर भगवान को याद करने का भी रखा करो!
मैं कहता था,
माँ!क्यों देसी घी खराब करना
क्यों अकारण रुई जलाना
भगवान अव्वल तो कहीं है नहीं
होगा भी तो उसे इन चीजों की जरूरत नहीं!
माँ कहती थी
कुतर्क तो जितने करवा लो
इन कर्मों से मन शांत होता है
दो वक्तों के मिलन के वेले में
वरना जी उड़ता है!
मैं हँस कर कहता,
यूँ कहो न मन मरने का करता है!
आज जब इस भयानक समय में
मेरे बच्चों की माँ
पत्नी
यही सब करती है
मत पूछो!मेरी रूह कितना माँ को
याद करती है
माँ आज भी मेरे शहर के घर में
इतने दुख उठाने के बाद भी
संध्या करती है!

(दो)

आओ मृतकों के बारे में बातें करें
वे जो कभी जीवित थे
उनकी स्मृति खंगालें
मृतक को दिवंगत या स्वर्गवासी भी कह सकता था
बेशक यह कुछ सामुदायिक शब्द होता
किंतु मैं स्मृति को इस तरह देखता
जैसे कलेजे में कुछ चुभता
पीड़ा देता
यह किसी छुटे मकान या शहर की बात नहीं है
किसी टूटे रिश्ते या रूठे दोस्त की बात नहीं है
यह स्मृति है मेरे अपनों की
उन्हीं मृतकों की बातें करे
वे जब जीवित थे
उनकी हँसी,उनके सपनों की बातें करें
 उनके आदर्शों,उनकी प्रतिबद्धता की बातें करें
उन दिनों जब हम किसी बात पर सहमत न हुए
उनके जाने के बाद
उनकी बात मान लेने की बातें करें!
बातें करें क्योंकि
बातें कर लेने भर से
मन हल्का होता है
कोई बात नहीं अगर
आँख से आँसू चूता है,
आखिर घनघोर बारिश के बाद ही
 मौसम खुलता है
बातें करें क्योंकि हमारे अपनों की
बातें हम न करेंगे
तो कौन करेगा?
यदि हम यूँ ही भुला देंगे
 अपने मृतकों को
तो हमारी गोदी में
सिर रखकर
शांति से कौन मरेगा?

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