डॉ नितेश व्यास की कविताएँ


 


 1.आत्मान्वेषण



संध्या-गहन पक्षीकुल-नीरव

मेरे उर में बोल रहा है

कौन पखेरु

उसकी स्वर्ण-दीप्ति करती है

दीप तिमिर को

नेत्रों में उसके

उदास दिवसों की छाया

और हृदय में काल-रात्रि की निर्मम काया


मिला था अमृत-वास उसे अपनी थाती में

बिंधा हुआ है शर-विषधर उसकी छाती में


मुक्ति का एक गान कंठ मे सदा कूकता

पर पंखों का स्पन्दन है सदा चूकता


अगणित डालें

 अविचल जिन रहा बसेरा

वन-कानन-उपवन से जिसका नेह घनेरा

पर बहेलिया-काल खडा बनकर घातक वह

प्राण-वारि हरने को रश्मि प्रखर भास्कर वह


किस विध करे उपाय निरन्तर चिन्तन अविरल

क्षण-क्षण रीता जाय वारि यह जीवन-नश्वर।।


2.पुकार


ओ मनु!

कहां हो?

कहां है वह वसुधैव नौका

जो बनाई थी तुमने

प्रलय का संकेत दिया था तुम्हें

एक सींग वाले विशाल मत्स्य ने

कि आऊंगा मैं

तुम सभी सृष्टि-सहायक बीजों को लेकर

सवार हो जाना नौका पर


चल दिये थे तुम

उत्तान लहरों से आलोड़ित समुद्र पर

जहां कुछ न था

अथाह जलराशि के अतिरिक्त

दृग्गत


तब खींची थी तुम्हारी नौका की रस्सी उस विशाल मत्स्य ने,अपने सींग से


कहां हो तुम?

बिठा लेते मुझे भी उस नौका में

पहुंचा ही था तट पर कि जा चुकी थी तुम्हारी नौका

क्षितिज पार


मैं आज भी हूं वहीं

प्रतीक्षा में तुम्हारी

आओ मनु

फिर आ जाओ...!


3. मैं सूरज हूं


सूरज की पोशाक चुराकर

दिन भर दौडूं उसके आगे

और जो सूरज थक कर

लुढ़के

पर्वत की चोटी से सरपट


चुपके से तब 

उसके सिरहाने मैं रख दूं

अपने कपड़े

और

पहन कर

अगला दिन

निकलूं घर से


मैं सूरज हूं।


 4. यादों की नदी


रोज़ नहाया करता था वह

बचपन की यादों सी नदी में


और सूखे अहसास के गमछे से था अपना बदन पौछता


रोज़ दुपहरी अपने तन से

तीखी धूप की प्यास बुझाता


सूरज को टुकड़ा-टुकड़ा कर

सांझ की भूख मिटाता था वह


अपने संग बीते पलछिन को

करके बिछौना सोता था वह


आंखों में मुस्कान लिए

भीगे अन्तस् 

यूं रोता था वह


कौन था वो?

अब कहां गया?

ढूंढ़ो खुद को

एक बार मिलो।


 5. पथरीला काल



नल से टपक रहा था

क़तरा-क़तरा सूखा अंधेरा

मुरझा चुकी थी आंखें

खिर चुके थे होंठ

अब

मिट्टी झर रही थी मेरी

लहू सी


लहू भी कहां था

वह हो गया था काल

पत्थर।


6. टूटती-बनती मूर्तियां


फ़कत एक मूर्ति के टूटने पे इतना हंगामा?

अगर छेड़ा है तुमने तार तो

तुमको मैं बतलाऊं कि लो

कुछ मूर्तियों के टूटने का ग़म मुझे भी है


हज़ारों साल से हम

काम भी तो यही करते हैं

बनाता यत्न से वह मूर्तियां

हम छोड़ देते हैं


कभी अबलाओं की चीख़ों से टूटी लाज की मूरत

कभी भूखी सिसकती,आह भरती रोती वह मूरत


हो दंगों में धधकती उन घरों की मूरतें या फिर

बसों की,रेलों की वह

सालती बदसूरतें या फिर


है देखा टूटना इंसान के भीतर

मनुजता का


वो जो सड़कों पे मांगे भीख

उन मासूम नन्हीं मूर्तियों का

फुटपाथ पर गिरकर बिखरना

टुकड़ा-टुकड़ा देखता हूं


जवां बेटों की लाशों को

तो ढोती अपने काधों पे

मैं ऐसे बापों की

खण्डित सी मूरत टूटती देखूं

या देखूं उन बुतों को


दवा-दारू बिना दम तोड़ती हैं

मूर्तियां हर दिन

अभी तो थी सुहागिन

अब हुई विधवा,महिनों में

वो सूनी मांग की मूरत

वो सपनों की सुनहरी मूर्तियां जो बन भी न पायी

उन्हें मिट्टी में मिलता देखता हूं और क्या देखूं?


मैं अपना बुत समेटूं

धस पडू़ं 

उस बुत के मलबे में

कि अब इंसा कहां है

कहां इंसानियत है?

      ~~~

कवि: डॉ नितेश व्यास

पता: जोधपुर,राजस्थान

मो: 9829831299



Comments

  1. कविताओं को प्रतिष्ठित पत्रिका में स्थान देने हेतु आपका बहुत आभार सर।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

प्रसाद के काव्य में सौंदर्य चेतना: डॉ. संध्या गुप्ता

प्रेम कुमार साव की कविताएँ

अशोक आशीष की कविताएँ