सारिका भूषण की तीन लघुकथाएं




एक कोशिश
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आज फिर निहाल की कड़वी बातें सुन कर शगुन का मन काफी आहत था । हमेशा मुस्कुराने वाली शगुन , चेहरे पर झूठी मुस्कराहट लाते - लाते थक चुकी थी ।

मगर आखिर लटका हुआ चेहरा लेकर किसके पास जाए। अपनी मर्ज़ी से पापा - मम्मी के विरुद्ध जाकर मंदिर में शादी करना , महीनों किसी परिवार वालों की सुध न लेना , अब उसे कचोटता रहता था ।

पापा को जब हार्ट अटैक आया तब जाकर उनसे माफ़ी मांगी थी और अपनी सेवा से पश्चाताप भी किया । जब पापा ने फिर से अपनी इकलौती संतान 
को गले लगाया तब मानो सारी खुशियां गले लग गईं । 

ससुराल में कभी किसी ने गले नहीं लगाया । निहाल ने भी कभी इस दिशा में पहल करना अपना कर्तव्य न समझा ।

शगुन का मायका उसी शहर में था । इसलिए अक्सर शगुन अपने मम्मी - पापा की देखभाल करने पहुँच जाया करती थी । बस यही निहाल को खटकने लगा और शुरू हो गई शगुन पर कड़वी बातों की बौछार । जब कोई इंसान अपने परिवार से नाता तोड़ता है तो उसे दूसरे का पारिवारिक होना भी बर्दाश्त नहीं होता । वैसे भी जो अपने माता - पिता से नाता तोड़ सकता है , वह भला कौन सा रिश्ता में ईमानदार हो सकता है ।

ऐसा नहीं था कि शगुन ने निहाल को कभी उसके माता - पिता से अलग रहने बोला था या रिश्ता न रखने के लिए उकसाया था । मगर निहाल अपने हठ और झूठे स्वाभिमान में कैद था ।दांपत्य जीवन में दूरियां बढ़ती जा रही थी ।

शगुन अपना दुःख किसी से बाँट नहीं सकती थी । मायके की दीवारों से  दुखड़ा  फुसफुसा भी नहीं सकती थी कि कहीं पापा की तबियत फिर से न बिगड़ जाए ।मगर ममता को न सुनने की ज़रूरत पड़ती है न बोलने की । वह तो महसूस करती है ।

 एक दिन शगुन की माँ ने बड़े प्यार से शगुन को समझाया " बेटा , यदि मनुष्य अपने रिश्तों से नाता  तोड़ता है तो कहीं न कहीं उसके हृदय में यह अपराध भावना घर कर लेती है और इसकी पीड़ा में वह अनजाने ही कड़वा होता जाता है । मगर रिश्तों में मिठास भरने के लिए पहल कोई भी कर सकता है .....कोई भी । "

अगले ही दिन अचानक शगुन ने निहाल को ऑफिस में फोन लगाकर बोला " मैं दो दिनों के लिए मायके जा रही हूँ , कुछ ज़रूरी काम है । " 

दोपहर वाली बस से शगुन चल दी अपने उन रिश्तों को संबल देने के लिए जो जाने अनजाने बिछड़ गए थे और टूट रहे रिश्तों को जोड़ने की एक कोशिश करने .....निहाल के माता - पिता के पास । उनसे माफ़ी माँगने और  अपने की कोशिश करने ।


दिलासा
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" मुझे बिल्कुल मन नहीं लग रहा ...समीर ! सुन रहे हो ...."

" प्लीज़ ..."

" मैं बोल रही हूं न मुझे यहां नहीं रहना ...."

" क्या पागलपन है निशा ?  पिछले चौबीस सालों से जिस भरे - पूरे घर में रह रही हो , वहीं अब मन नहीं लगता ? " समीर ने अपनी खीज ज़ाहिर की ।

" इसलिए तो बोल रही हूं । बस अब और नहीं .....मैं थक गई हूं इतनी भीड़ से । मुझे अंदर से बहुत अकेलापन लगता है ....मुझे मेरी अपनी ज़िंदगी चाहिए......बहुत जी लिया दूसरों के लिए ....." अब निशा की आंखें संवाद करने लगी थी । 

" निशा तुम्हें अपनी सोच बदलने की ज़रूरत है । होता है ......पहली बार जब बच्चे पढ़ाई करने बाहर चले जाते हैं तो सभी को ऐसा लगता है । तुम जरा सोचना कम करो या अपने कुछ फालतू के ही काम कर लिया किया करो जो अक्सर करते रहती हो  " समीर अपने ढंग से एक माँ की आंसुओं को दिलासा दे रहा था और शायद एक पत्नी की आंसुओं से पीछा छुड़ाना चाह रहा था ।

" अच्छा मैं चलता हूँ । आने में देर होगी । " समीर ने अपना लैपटॉप बैग उठाया और ऑफिस निकल गया ।

फिर से निशा खुद को अकेला और डूबता हुआ महसूस करने लगी थी । मगर वह डूबना नहीं चाहती थी ।

" हैलो ममा ! कितनी देर करती हो फोन उठाने में .....हेलो .....ममा सुन रही हो न ! " शिकागो से फोन पर अपनी लाडली की आवाज़ सुन कर निशा और ज़्यादा भावुक हो गई ।

 ममा मैं सोच रही थी कि मेरे प्लेसमेंट होते ही आप आ जाना मेरे पास । " एक बेटी ने अपनी माँ की चुप्पी को मानो सुन लिया ।

" अरे हां ! एक बात तो बताना ही भूल गई । तब तक आप बहुत सारे कपड़ों में कढ़ाई कर के तैयार रखो। पता है यहाँ हाथ की कारीगरी का बहुत सम्मान है ।यहाँ मैं ऑनलाईन सेल में डाल दूँगी । फिर तो आपके पास वक़्त ही न होगा हमसे भी बातें करने के लिए । इट साउंड्स गुड़ न ममा । ओके बाय । बाद में कॉल करती हूं ।" निशा अपनी लाडली के दिए गए दिलासे से फूली न समा रही थी । सच जब बच्चे माता - पिता की परेशानियों का हल बताने लगे तब मान लीजिए कि आपकी दी हुई शिक्षा का फल है । निशा अब खुद को बहुत हल्का महसूस कर रही थी ।




आश्वासन
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" अरे ! शाम के छह बज रहे हैं और अभी तक सो रहे हो ? उठो भी बेटा .....जाओ थोड़ा फ्रेश होकर पढ़ने बैठो । सुबह से किताबों को हाथ में भी नहीं लिए हो।"

" मुझे नहीं उठना .... मुझे नहीं पढ़ना .... प्लीज़ मुझे अकेला छोड़ दीजिए ...." निशांत बुरी तरह झुंझलाते हुए बोला । 

" निशांत अब उठ जाओ ..... जितनी देर बिस्तर पर पड़े रहोगे आलस्य लगता रहेगा । देखो मैं पैरासिटामोल खाकर भी काम कर रही हूँ । अगर सोने चली जाऊं तब मैं भी सोते रह जाऊंगी ......"

" आपकी मर्जी ..... मैंने बोला है आपको काम करने .... प्लीज़ जाओ यहाँ से ....." सोलह साल के निशांत को आभा की नसीहतें कांटों की तरह चुभ रही थी ।

आभा चुप हो गई । अपने क्लास में हमेशा अव्वल आने वाला , सबका प्यारा निशांत इस तरह से बदतमीजी भी कर सकता है ... आभा को विश्वास ही नहीं हो रहा था । आभा का दिल बैठ गया और सिसकियां गले में अटकी हुई लग रही थी । 

आभा निशांत के कमरे का दरवाज़ा बंद करते हुए वापस किचेन में जाने लगी । " सभी के लिए लॉकडाउन है , वर्क फ़ॉर होम है .... मेरे लिए तो सिर्फ काम और पूरे घर की खरीखोटी सुनना है .... अच्छा है अब बच्चे भी बोलने लगे । " आभा के लिए माहौल असहनीय होता जा रहा था ।

" ममा .... प्लीज़ .... ममा आई एम सॉरी !! मैं क्या करूँ ? किसी चीज़ में मन नहीं लगता । क्लास के वीडियो लेक्चर्स समझ में नहीं आते । कहीं खेलने नहीं जा सकता ... दोस्तों के घर नहीं जा सकता ....सर हमेशा भारी लगता है ....न्यूज़ देखकर हमेशा डर लगा रहता है कहीं मुझे कोरोना हो गया तो ?? कब तक रहूंगा ऐसे ममा ? " निशांत आभा से लिपट कर बिलखने लगा ।

आभा अपने सारे दुःख भूल गई । निशांत के प्रश्नों का कोई जवाब नहीं था आभा के पास । हमेशा दूसरे को सांत्वना देने वाली आभा आज निरुत्तर थी ।

उसने बड़े प्यार से निशांत के सर पर हाथ फेरा और सिर्फ़ कुछ शब्द ही उसके मुख से निकल सके " सब ठीक हो जाएगा । " 
निशांत के साथ - साथ आभा खुद को आश्वासन देने की कोशिश कर रही थी ।


लेखिका: सारिका भूषण
(कवयित्री , लेखिका एवं लघुकथाकार)
मो०: 9334717449
पता: राँची , झारखंड







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